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________________ २१३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान आत्म तेज का प्रकाश करूं संयम की रुचि के द्वारा । कर्मों का प्रवाह रोकूँगा काटूंगा भव कारा ॥ (१०) निर्ममत्वेन चिद्रूपप्राप्तिर्जाता मनोषिणाम् । तस्मात्तदर्थिना चिंत्यं तदेवैकं मुहुर्मुहुः ॥१०॥ अर्थ- जिन किन्हीं विद्वान मनुष्यों को शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति हुई है उन्हें शरीर आदि पर पदार्थो में ममता न रखने से ही हुई है इसलिये जो महानुभाव शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति के अभिलाषी है उन्हें चाहिये कि वे निर्ममत्व का ही बार बार चितवन करें। उसी की ओर अपना दृष्टि लगायें | १०. ॐ ह्रीं मनीषित्वपदविषयकममत्वरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अक्षरबोधस्वरूपोऽहम् । जिनको भी चिद्रूप शुद्ध की प्राप्ति हुई पावन । उन सबने जीता ममत्व को किया आत्म चिन्तन || जो चाहें चिद्रूप शुद्ध को निर्ममत्व होवें । पर पदार्थ में जो ममत्व है उसे पूर्ण खोवें ॥ जो चिद्रूप शुद्ध का ध्याता वह सुख पाता है । जो चिद्रूप शुद्ध ना ध्याता वह दुख पाता है |॥१०॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (११) शुभाशुभानि कर्माणि न मे देहोपि नो मम | पिता माता स्वसा भ्राता न मे जायात्मजात्मजः ॥११॥ अर्थ- शुब अशुभ कर्म मेरे नहीं है । देह माता पिता भाई बहिन स्त्री पुत्र मेरे नहीं है। |११. ॐ ह्रीं स्वसांजायादिविशषयकममत्वरहितनिर्ममत्वस्वरूपाय नमः । सौख्यनिलयस्वरूपोऽहम् । शुभ या अशुभ कर्म से मेरा कुछ संबंध नहीं । माता पिता अरु बहिन भाई सुत पत्नी कभी नहीं |
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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