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________________ २०४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी नवम अध्याय पूजन आदि अन्त अरु मध्य रहित है ज्ञान मात्र सत्ता से युक्त। आत्म स्वसंवेदन केवल से हो जाऊं प्रभु भव दुख मुक्त॥ तुव उपदेशित हार्द करूं मैं आत्मसात ये ही वर दो । नित्य निरंजन निष्कलंक हो जाऊं प्रभु ऐसा कर दो ॥ निःश्रेयस पथ पर बढ़ जाऊं आत्म अभ्यदय ध्रुव पाऊं । निज स्वरूप संबोधि प्राप्त कर आलोकित जीवन पाऊ॥ आत्म तत्त्व ह्रदयंगम करना स्वाध्याय का है निष्कर्ष । अपने से अपना परिचय कर करूं नाथ मैं आत्मोत्कर्ष || परम शुद्ध चिद्रूप ध्यान की लगन ह्रदय में रहे सदा । अनुभव रस की पवित्र धारा अंतरंग में बहे सदा ॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णाऱ्या नि. । आशीर्वाद परम शुद्ध चिद्रूप का महाअर्घ्य अविकार । जो भी इसको निरखता पाता ज्ञान अपार | ' इत्याशीर्वाद : भजन मोक्ष पाने के लिए चाहिए साहस चेतन । माता जिनवाणी का पयपान करो बस चेतन ॥ आत्म कल्याण का अवसर मिला है मुश्किल से | भेद विज्ञान की महिमा ह्रदय में लो चेतन ॥ बिना सम्यक्त्व के भव पार नहीं जाओगे | ___ शुद्ध रत्नत्रयी आनंद का लो रस चेतन || आत्म अनुभव के बिना सब क्रिया अधूरी है। नित पियो शुद्ध बुद्ध आत्मा का रस चेतन || मोक्ष की प्राप्ति फिर दुर्लभ कभी नहीं होगी । - अपनी शुद्धात्मा का ध्यान तो करो चेतन ||
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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