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________________ १५७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान गुण अनंत समुदाय प्रगट कर वीतराग हो जाऊं मैं | सकल द्रव्य गुण पर्यायों को जान मुक्त हो जाऊं मैं || (१२) बाह्यातरन्यसंपर्को येनांशेन वियुज्यते । तेनांशेन विशुद्धिः स्यात् चिद्रूपस्य सवर्णवत् ॥१२॥ अर्थ- जिस प्रकार बाहर भीतर किसी भी सुवर्ण के जितने अंश का अन्य द्रव्य से संबंध छूट जाता है, तो वह उतने अंश में शुद्ध कहा जाता है। उसी प्रकार चिद्रूप के भी जितने अंश से कर्ममल का संबंध नष्ट हो जाता है। उतने अंश में वह शुद्ध कहा जाता है | १२. ॐ ह्रीं बाह्याभ्यन्तरान्यसंपर्करहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अबद्धस्वरूपोऽहम् । जैसे सोना बाहर भीतर पर संबंध छोड़ देता । जितने अंश छोड़ देता है उतने अंश शुद्ध होता ॥ उसी भांति चिद्रूप कर्म मल का जितना तजता है अंश । उतने अंश शुद्ध होता है पूरा तजने पर सर्वांश ॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ॥१२॥ | ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१३) शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानपर्वतारोहणं सुधीः । कुर्वन् करोति सुद्दष्टिर्व्यवहारावलंबनम् ॥१३॥ अर्थ- विद्वान मनुष्य जब तक शुद्धचिद्रूप के ध्यानरूपी विशाल पर्वत पर आरोहण करता है तब तक तो व्यवहानय का अवलंबन करता है। १३. ॐ ह्रीं चैतन्यपर्वतस्वरूपाय नमः । ज्ञानमेरुस्वरूपोऽहम् । सुधी शुद्ध चिद्रूप ध्यान रूपी पर्वत पर जब चढ़ता । तब तक ही व्यवहार सुनय का ही अवलंबन यह करता।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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