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________________ १५६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तम अध्याय पूजन निज स्वशक्ति का बार बार आस्वाद न मंगलकारी है । भौतिक वैभव की आशा बिन निजात्मा गुणधारी है || (90) अशुद्धं कथ्यते स्वर्णमन्यद्रव्येण मिश्रितम् । व्यवहारं समाश्रित्य शुद्धं निश्चयतो यथा ॥१०॥ अर्थ- जिस प्रकार व्यवहारनय से शुद्ध भी सोना अन्य द्रव्य के मेल से अशुद्ध और निश्चयनय से शुद्ध कहा जाता है। १०. ॐ ह्रीं शुद्धानन्दचामीकरचिद्रूपाय नमः । प्रभुस्वरूपोऽहम् । जैसे सोना शुद्ध संग पर से अशुद्ध हो जाता है । जब संयोग छोड़ देता तब यही शुद्ध कहलाता है | परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ॥१०॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अयं नि. । (११) युक्तं तथाऽन्यद्रव्येणाशुद्धं चिद्रूपमुच्यते । व्यवहारनयात् शुद्धं निश्चयात् पुनरेव तत् ||११|| अर्थ- उसी प्रकार शुद्ध भी चिद्रूप कर्म आदि निकृष्ट द्रव्यों के सम्बन्ध से व्यवहारनय की अपेक्षा अशुद्ध कहा जाता है। और वही शुद्ध निश्चय की अपेक्षा शुद्ध कहा जाता ११. ॐ ह्रीं अन्यद्रव्यसम्पर्करहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । विभुस्वरूपोऽहम् । त्यों व्यवहाराधीन शुद्ध चिद्रूप अशुद्ध कहाता है । जब निश्चय स्वरूप होता है तब यह शुद्ध कहाता है || परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ||११॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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