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________________ १४१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जो परमार्थ बाह्य होते है मोक्ष हेतु जानते नहीं । वे अज्ञानी पुण्य चाहते जिनवर वच मानते नहीं ॥ अष्टम वसुधा त्रिलोकाग्र में सिद्ध शिला है ज्यों सस्थित। उसी भांति मेरी परिणति भी है निश्चल निज में ही थित॥ एक शुद्ध चिद्रूप चतुष्टय ही मेरा है शुद्ध निवास । अखिल विश्व में या कि मोक्ष में वह ही है अविनाशी वास॥ मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम । इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥१४॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१५) चलति सन्मुनीन्द्राणां निर्मलानि मनांसि न । शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानात् सिद्धक्षेत्राच्छिवा यथा ॥१५॥ अर्थ- जिस प्रकार कल्याणकारी सिद्ध क्षेत्र से सिद्ध भगवान किसी रीति से चलायमान नहीं हो सकते। उसी प्रकार उत्तम मुनियों के निर्मल मन भी शुद्धचिद्रूप के ध्यान से कभी चल विचल नहीं हो सकते । १५. ॐ ह्रीं निर्मलचिद्रूपाय नमः । निश्चलब्रह्मोऽहम् । जैसे सिद्ध क्षेत्र से होते सिद्ध कभी भी चलित नहीं । उसी भांति मुनि की निर्मलता भी होती है चलित नहीं | मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम । इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥१५॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१६) मुनीश्वरैस्तथाभ्यासो दृढः सम्यग्विधीयते । मानसं शुद्धचिद्रूपे यथाऽत्यन्तं स्थिरीभवेत् ॥१६॥ अर्थ- मुनिगण इस रूप से शुद्धचिद्रूप के ध्यान का अभ्यास करते हैं कि उनका मन शुद्धचिद्रूप के ध्यान में सदा निश्चल रूप से स्थित बना रहे। जरा भी इधर उधर चल
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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