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________________ १४० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षष्टम अध्याय पूजन जो परमार्थ बाह्य होते हैं नियम शील पालन करते । वे निर्वाण नहीं पाते हैं कभी न कर्मो को हरते ॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि । (१३) निश्चलः परिणामोस्तु स्वशुद्धचिति मामकः । शरीरमोचनं यावदिव भूमौ सुराचलः ॥१३॥ अर्थ- जिस प्रकार पृथ्वी में मेरु पर्वत निश्चल रूप से गड़ा हुआ है। जरा भी इसे कोई हिला चला नहीं सकता। उसी प्रकार मेरी भी यही कामना है कि जब तक इस शरीर का सम्बन्ध नहीं छूटता, तब तक इसी आत्मिक शुद्धचिद्रूप में मेरा भी परिणाम निश्चल रूप से स्थित रहे। जरा भी इधर उधर न भटके । १३. ॐ ह्रीं स्वशुद्धचिद्रूपाय नमः । निष्कम्पोऽहम् । ताटंक ज्यों सुमेरु पर्वत पृथ्वी में गड़ा हुआ हैं सतत अचल । कोई नहीं हिला सकता है नहीं चला सकता इक पल || उसी भांति चिद्रूप शुद्ध में निश्चल हों मेरे परिणाम | जब तक तन संयोग तभी तक कहीं न भटके अल्प विराम॥ मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम । इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥१३॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१४) सदा परिणतिर्मेऽस्तु शुद्धचिद्रूपकेऽचला | अष्टमीभूमिकामध्ये शुभा सिद्धशिला यथा ॥१४॥ अर्थ- जिस प्रकार प्रारभारनामा आठवीं पृथ्वी में अत्यन्त शुभ सिद्धशिला निश्चल रूप से विराजमान है । उसी प्रकार मेरे मन की परिणति भी इस शुद्धचिद्रूप में निश्चल रूप से स्थित रहे। १४. ॐ ह्रीं पारिणामिकभावाय नमः । अचलचिद्रूपोऽहम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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