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________________ १२५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान हो आविर्भूत हृदय में करुणा अनुकंपा स्वामी । जिनआगम की महिमा ही आए उर अंतर्यामी ॥ | जो मैंने पहिले समस्त कार्य किये हैं, वे इस समय मुझे विष सरीखे दुःखदायी जान पड़, रहे हैं, क्योंकि इस समय मैं शुद्ध चिद्रूप में लीन हो गया हूं। मेरा मोह मन्द हो गया है, और सब बातों से मेरी इच्छा घट गई है, इसलिये इस मोहनीय कर्म के उदय के लिये सर्वथा धिक्कार है। २१. ॐ ह्रीं महामोहोदयजनितक्रियाविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निरीहस्वरूपोऽहम् । पहिले जो कृत्य किए वे अति मोह मूढ़ हो मैंने । विष के समान वे लगते त्यागे विकार अब मैंने ॥ चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है । अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥२१॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२२) व्यक्ताव्यक्तविकल्पानां वृंदैरापूरितो भृशम् । लब्धस्तेनावकाशो न शुद्धचिद्रूपचिन्तने ॥२२॥ अर्थ- व्यक्त और अव्यक्त दोनों प्रकार के विकल्पों से मैं सदा भरा रहा। कभी मैं अपने संकल्प विकल्पों को दूसरे के सामने प्रगट करता रहा, और कभी मेरे मन में ही वे टकराकर नष्ट होते रहे; इसलिये आज तक मुझे शुद्धचिद्रूप के चिन्तवन करने का कभी भी अवकाश न मिला। २२. ॐ ह्रीं व्यक्ताव्यक्तविकल्पवृंदरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अविकल्पोऽहम् । चिद्रूप शुद्ध में लय हो अब मैं सत्पथ पर आया । अब मोह मंद है मेरा गत जीवन सब बिसराया ॥ धिक्कार मोह को है प्रभु यह बहकाता पल पल में । मैं मोह दुष्ट के कारण बहता था भवदधि जल में || चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है । अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥२२॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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