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________________ १२२ तत्त्वज्ञान तरंगिणी पंचम अध्याय पूजन रागादि विकारी भावों से यह चलित किन्तु है मलिन नहीं। लगता है कठिन बहुत सबको पर बिलकुल ही यह कठिन नहीं। चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है । अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥१५॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१६) विहितो विविधोपायैः कायक्लेशो महत्तमः । स्वर्गादिकांक्षया शुद्धं स्वस्वरूपमजानता ॥१६॥ अर्थ- मुझे स्वर्ग आदि सुख की प्राप्ति हो इस अभिलाषा से मैंने अनेक प्रयत्नों से घोरतम कायक्लेश तप भी तपे। परन्तु शुद्धचिद्रूप की ओर जरा भी ध्यान न दिया। स्वर्ग चक्रवर्ती आदि के सुख के सामने मैंने शुद्धचिद्रूप को तुच्छ समझा । १६. ॐ ह्रीं कायक्लेशादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निराकाङ्क्षोऽहम् । । स्वर्गादिक सुख पाने की अभिलाषा उर में जागी । बहुकाय क्लेश तप कीने पर मोह नींद ना भागी ॥ चिद्रूप शुद्ध के ऊपर मैं ध्यान नहीं दे पाया । चक्री सुख के आगे तो चिद्रूप शुद्ध ना भाया | चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है । अतएव आत्मा मेरा चहंगति में भटकाया है ॥१६॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१७) अधीतानि च शास्त्राणि बहुवारमनेकशः । मोहतो न कदा शुद्धचिद्रूपप्रतिपादकं ॥१७॥ अर्थ- मैंने बहुत बार अनेक शास्त्रों को पढ़ा। परन्तु मोह से मत्त हो शुद्धचिद्रूप का स्वरूप समझाने वाला एक भी शास्त्र न पढ़ पाया । १७. ॐ ह्रीं अनेकशास्त्राध्ययनविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । बोधसूर्यस्वरूपोऽहम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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