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________________ १२१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणीं विधान निज शुद्ध वस्तु त्रैकालिक ध्रुव है नित्यानंद सदैव पूर्ण । इसमें न राग की रेख कहीं है शक्ति अनंतों पूर्ण पूर्ण ॥ अर्थ- संसार में लोक ज्ञाति शास्त्र देव और राजाओं की विभूतियों को, स्त्रियों और मुनि आदि समस्त व्यवहार को कई बार मैंने जाना। क्षेत्र, नदी, पर्वत, आदि खण्ड खण्ड और समस्त जगत के स्वभाव को भी पहिचाना। परन्तु मोह की तीव्रता से मैं शुद्धचिद्रूप हूं इस बात को मैंने निश्चय रूप से कभी न जान पाया । १४. ॐ ह्रीं तीव्रमोहरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अस्पृष्टस्वरूपोऽहम् । सुर नृप विभूति को देखा लोकादि शास्त्र भी जाने । नारी मुनि आदिक के भी व्यवहार पूर्ण पहचाने || क्षेत्रादिक पर्वत सब जग हे प्रभु मैंने पहचाना । चिद्रूप शुद्ध मैं ही हूं यह कभी न अब तक माना ॥ चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है । अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥१४॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१५) शीतकाले नदीतीरे वर्षाकाले तरोरधः | ग्रीष्मे नगशिरोदेशे स्थितो न स्वे चिदात्मनि ||१५|| अर्थ- बहुत बार मैं शीतकाल में नदी के किनारे, वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे और ग्रीष्म ऋतु में पर्वत की चोटियों पर स्थित हुआ । परन्तु अपने चैतन्य स्वरूप आत्मा में मैंने कभी स्थिति न की । १५. ॐ ह्रीं शीतकालनदीतीरनिववसादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । चिदात्मनिवासोऽहम् । वर्षा में तरु तल बैठा सरदी में नदी किनारे । ग्रीषम में श्रृंग शिखर पर मैंने भीषणतप धारे ॥ मैं हूं चैतन्य स्वरूपी इसमें न हुआ प्रभु सुस्थिर । आत्मा में नहीं बसा मैं पर में ही रहता हो थिर ॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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