SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 63 निश्चयनय और व्यवहारनय जानते हैं कि घड़ा घी का नहीं, मिट्टी का है - ऐसा जानना ही व्यवहारनय का निषेध या त्याग करना है। जरा सोचिए! यहाँ घड़ा, घी का नहीं है, मात्र उसे ऐसा जाना गया . है कि जिस घड़े में घी रखा है या जिसमें हम घी रखते हैं, हम उस घड़े की बात कर रहे हैं। इसके लिए हम क्रिया में क्या करते हैं? क्या हम घड़े को घी से ही बना हुआ मान लेते हैं? नहीं! अथवा घड़ा, घी से नहीं बनता है - ऐसा जानकर क्या हम घड़े में घी रखना बन्द कर देते हैं या घड़े को फोड़ देते हैं? नहीं! क्रिया तो जैसी आवश्यकता होती है, वैसी होती है। मात्र ज्ञान में समझ लिया कि यह घड़ा घी का नहीं है - बस यही, व्यवहारनय का त्याग हो गया। इसीप्रकार व्रत-शील-संयमादि के माध्यम से वीतरागभावरूप निश्चय मोक्षमार्ग को समझना अथवा व्रतादि को मोक्षमार्ग कहना - व्यवहार का ग्रहण हुआ; लेकिन यह शुभभाव मोक्षमार्ग नहीं है, वीतरागभाव ही मोक्षमार्ग है - ऐसा जानना ही व्यवहार का त्याग या निषेध समझना चाहिए। __ इसीप्रकार मनुष्य-जीव कहकर, मनुष्य-शरीर के संयोग में रहनेवाले जीव को जानना ही व्यवहारनय का ग्रहण है तथा जीव, मनुष्य-शरीररूप नहीं है, वह तो शरीर से भिन्न है - ऐसा जानना ही व्यवहारनय का निषेध है। . .. उक्त विवेचन से व्यवहारनय और निश्चयनय में निषेध्य-निषेधक सम्बन्ध का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। प्रश्न - जब व्यवहारनय, निश्चयनय का प्रतिपादन करता है तो उसका निषेध करने की आवश्यकता ही क्या है? यदि हम उसका निषेध न करें तो उससे क्या हानि है? उत्तर - भाई! व्यवहारनय के निषेध में ही उसकी सार्थकता और
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy