SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [जिनागम के अनमोल रत्न - (1) परमानन्दस्तोत्र स एव परमं ब्रह्म, स एव जिनपुंगवः। स एव परमं तत्त्वं, स एव परमो गुरूः।।16।। स एव परमं ज्योतिः, स एव परमं तपः। स एव परमं ध्यानं, स एव परमात्मनः।।17।। स एव सर्व कल्याणं, स एव सुख भाजनं। स एव शुद्धचिद्रूपं, स एव परमं शिवम्।।18।। स एव परमानन्दं, स एव सुखदायकः। स एव परचैतन्यं, स एव गुणसागरः।।1।। अर्थ :- वह परमध्यानी योगी मुनि ही परमब्रह्म, कर्मों को जीतने वाला जिनश्रेष्ठ, शुद्धरूप हो जाने से परम आत्मतत्त्व, जगतमात्र के लिये हित के उपदेशक होने से परमगुरू, समस्त पदार्थों के प्रकाश करने वाले ज्ञान से युक्त हो जाने से परम ज्योति, ध्यान-ध्याता के अभेदरूप हो जाने से शुक्लध्यान रूप परमध्यान व परम तपरूप परमात्मा के यथार्थ स्वरूपमय हो जाते हैं- वही परमध्यानी। मुनि ही सर्व प्रकार के कल्याणों से युक्त, परमसुख के पात्र, शुद्ध चिद्रूप, परम शिव कहलाते हैं और वही परमानन्दमय, सर्व सर्वसुखदायक, परम चैतन्य आदि अनन्त गुणों के समुद्र हो जाते हैं। पाषाणेषु यथाहे मं, दुग्धमध्ये यथा घृतम्। तिलमध्ये यथा तैलं, देहमध्ये तथा शिवः।।22।। काष्ठमध्ये यथा बन्हिः, शक्तिरूपेण तिष्ठति। अयमात्मा शरीरेषु, यो जानाति स पण्डितः।।24।। अर्थ :- जिस प्रकार स्वर्ण पाषाण में सोना, दूध में घी और तिलों में तेल रहता है, उसी प्रकार शरीर में शिवरूप आत्मा विराजता है। जैसे काष्ठ के भीतर आग शक्तिरूप से रहती है, उसी प्रकार शरीर के भीतर यह शुद्ध आत्मा विराजमान है। इस प्रकार जो समझता है वही वास्तव में पण्डित हैं।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy