SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनागम के अनमोल रत्न ] [9 ( 2 ) योगसार जइ वीहउ चउगइगमणु तउ परभाव चएवि । अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम शिवसुक्ख लहेवि ॥15 ॥ जो चउ गति दुख से डरे, तो तज सब पर भावं । कर शुद्धातम चिन्तवन, शिव-सुख यही उपाव ।। अर्थ :- हे जीव ! यदि तू चतुर्गति के भ्रमण से भयभीत है, तो परभाव का त्याग कर और निर्मल आत्मा का ध्यान कर, जिससे तू मोक्ष-सुख प्राप्त कर सके । को शुद्धप्पा अरु जिणबरहं भेउ म किमपि बियाणि । मोक्खह कारण जोइया णिच्छइ एउ बियाणि । 120 ॥ जिनवर अरु शुद्धात्म में, किंचित् भेद न जान। मोक्ष अर्थ हे योगिजन ! निश्चय से पहिचान ।। अर्थ :- हे योगी ! अपने शुद्धात्मा में और जिन - भगवान में कुछ भी भेद न समझो - मोक्ष का साधन निश्चय से यही है । जो जिणु सो अप्पा मुणहु इह सिद्धंतहु सारू । इह जाणेविण जोयइहु छंडहु मायाचारू ।।21। जो जिन सो आतम लखो, निश्चय भेद न रंच । यही सार सिद्धान्त का, छोड़ो सर्व प्रपंच ॥ अर्थ :- जो जिन- भगवान है वही आत्मा है - यही सिद्धांत का सार समझो । इसे समझकर हे योगीजनों ! मायाचार को छोड़ो। जो परमप्पा सो जि हउं जो हउं सो परमप्पु । इ जाणेबिणु जोइया अण्णु म करहु बियप्पु । 1 22 11 जो परमातम सोहि मैं, जो मैं सो परमात्म । ऐसा जान जु योगिजन, करिये कुछ न विकल्प ।। अर्थ :- जो परमात्मा है वही मैं हूँ, तथा जो मैं हूँ वही परमात्मा है - यह समझकर हे योगिन् ! अन्य कुछ भी विकल्प मत करो ।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy