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________________ 86] [जिनागम के अनमोल रत्न में प्रवेश करने से, सदा अगाध जल में डूबे रहने से और चिरकाल तक जेलखाने में पड़े रहने से भी अधिक कष्टदायी है। अन्धकार में जल में डूबना और जेलखाने में पड़े रहना तो एक भव में दुखदायी है किन्तु अज्ञानजन्य दुख अनन्तभवों में दुखदायी है। श्रुतज्ञान तीसरा विशाल नेत्र है, किन्तु बुद्धि से रहित प्राणी उसे ग्रहण नहीं कर सकता। उस श्रुतज्ञान के होने पर अन्धा मनुष्य भी मोक्षरूपी महानगर के कल्याणकारी मार्ग पर जाता है। 11724।। जैसे-जैसे मनुष्य में वैराग्य, निर्वेद, उपशम, दया और चित्त का निग्रह बढ़ता है वैसे-वैसे मोक्ष निकट आता है। 1858 ।। जैसे लवण समुद्र में पूर्व भाग में जुआ और पश्चिम भाग में आधी लकड़ी डाल देने पर दोनों का संयोग दुर्लभ है। उसी प्रकार अनन्त संसार में मनुष्य भव का पाना दुर्लभ है। 1861।। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और प्रमादरूप अशुभ परिणामों की बहुतायत के कारण मनुष्य योनि दुर्लभ है तथा मनुष्य रहित लोक अति महान् है इससे भी मनुष्य योनि दुर्लभ है, क्योंकि असंख्यात द्वीप समुद्रों तक तो नरकवास है, ऊपर स्वर्गपटल है, शेष लोकाकाश भी महान है तथा जीवों की योनियां भी बहुत हैं, इससे भी मनुष्य योनि दुर्लभ है। 1862 ।। यदि तपस्वियों द्वारा सेवित पर्वत, नदी आदि प्रदेश तीर्थ होते हैं तो तपस्यारूप गुणों की राशि क्षपक स्वयं तीर्थ क्यों नहीं हैं। 2001 ।। ___ सब मनुष्यों, तिर्यञ्चों और देवों को तीनों कालों में जितना सुख होता है वह सब सुख सिद्धों के एक क्षणमात्र में होने वाले सुख के भी बराबर नहीं है। 2145 ।। विनय पूर्वक सुनने में आया हुआ' श्रुत' यदि किसी भी प्रकार प्रमाद से विस्मृत हो जाय तो दूसरे भव में वह उपस्थित हो जाता है और केवलज्ञान को भी प्राप्त कराता है। -श्री धवलाजी, भाग-9, पृष्ठ 259
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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