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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] । [85 किन्तु आपके अनुग्रह से मैं विकार से विचलित नहीं होऊंगा। 1483 ।। जिस प्रवाह में महावली, महापराक्रमी और विशाल शरीर वाले हाथी बह जाते हैं, उस प्रवाह में बेचारे खरगोश स्वयं ही बह जाते हैं ।।1613 ।। जिस वायु से मेरू पर्वत का पतन हो सकता है उसके सामने सूखा पत्ता कैसे ठहर सकता है? इसी प्रकार जो कर्म अणिमा आदि गुणों से सम्पन्न देवों की भी दुर्गति कर देता है उसके सामने तुम्हारे जैसे मरणोन्मुख मनुष्य की क्या गिनती है? |1615।। मोक्ष के अभिलाषी संयमी का मरना भी श्रेष्ठ होता है, किन्तु अरहन्त आदि को साक्षी करके किये गये त्याग का भंग करना श्रेष्ठ नहीं है। 1634 ।। बिना त्याग किये मरने पर इतना दोष नहीं होता, जितना महादोष त्याग लेकर उसका भंग करने में होता है। 1636 ।। अब तो तुम्हारे प्राण कण्ठगत हैं अर्थात् तुम्हारी मृत्यु निकट है। जैसे समुद्र को पीकर जो तृप्त नहीं हुआ वह ओस की बूंद को चाटने से तृप्त नहीं हो सकता। उसी प्रकार जब तुम समस्त पुद्गलों को खाकर भी तृप्त नहीं हुए तब मरते समय आज भोजन से कैसे तृप्त हो सकते हो? । 1653।। शहद से लिप्त तलवार और विषमिश्रित अन्न तो पुरूष का एक भव में ही अनर्थ करते हैं, किन्तु मुनि का अयोग्य आहार का सेवन तो सैकड़ों भवों में अनर्थकारी होता है। 1661।। प्रतिदिन राहु के मुखरूपी बिल में प्रवेश करने से चन्द्रमा कृष्णपक्ष में घटता है और शुक्लपक्ष में पुनः प्रतिदिन बढ़ता है तथा हेमन्त, शिशिर, बसन्त आदि ऋतुऐं भी जाकर फिर वापिस आती हैं, परन्तु बीता हुआ यौवन उसी भव में नहीं लौटता। जैसे नदी का गया जल फिर वापिस नहीं आता, उसी प्रकार यौवन भी जाकर वापिस नहीं आता।।1717।। टीका-इस प्राणी का अज्ञानभाव महान् गुफा के भीतर भयंकर अन्धकार
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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