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________________ [जिनागम के अनमोल रत्न जो पुरुष सम्यक्त्व रूपी रत्नराशि से सहित हैं वे धन-धान्यादि से रहित होने पर भी वास्तव में वे वैभव सहित ही हैं और जो पुरूष सम्यक्त्व से रहित हैं वे धनादि सहित हों तो भी दरिद्री ही हैं ।। 88 ।। 62] श्रद्धावान जीवों को जिनराज की पूजा के समय में कोई करोड़ों का धन दे तो भी वे असार धन को छोड़कर स्थिर चित्त से सारभूत जिनराज की पूजा ही करते हैं । 189 ।। साहीणे गुरूजोगे, जे गहु सुणंति सुद्ध धम्मत्थं । ते घट्ट दुट्ठ चित्ता, अह सुहड़ा भव भय विहूणा । 193 ।। धर्म का सत्यार्थ मार्ग दिखलाने वाले स्वाधीन सुगुरू का सुयोग मिलने पर भी जो निर्मल धर्म का स्वरूप नहीं सुनते वे पुरूष दीठ और दुष्ट चित्त वाले हैं तथा संसार परिभ्रमण के भय से रहित सुभट हैं । किरियाइ फडाडोबं, अहिय साहंति आगम विहूणं । मुद्धाणं रंजणत्थं सुद्धाणं हीलणत्थाए । 1100 ।। , जो जीव आगम रहित तपश्चरण आदि क्रियाओं का आडम्बर बहुत करते हैं उनसे मूर्ख जीव तो प्रसन्न होते हैं; किन्तु शुद्ध सम्यग्दृष्टियों द्वारा वे निन्दनीय हैं। भावार्थ :- कितने ही मिथ्यादृष्टि जीव जिनाज्ञा बिना बहुत आडम्बर धारण करते हैं, जो मूर्खों को बहुत रूचते हैं, परन्तु ज्ञानी जानते हैं कि यह समस्त क्रिया जिनाज्ञा रहित होने से कार्यकारी नहीं है। जो शुद्ध जिनधर्म का उपदेश देता है वह ही लोक में प्रगटपने धर्मात्मा है, ऐसा परम आत्मा जयवंत हो, न कि अन्य धन-धान्यादि पदार्थों का देने वाला; क्योंकि क्या कल्पवृक्ष की बराबरी कोई वृक्ष कर सकता है? कदापि नहीं । ।101 ।। भावार्थ :- जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश हो जाने पर भी उल्लुओं का
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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