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________________ [61 जिनागम के अनमोल रत्न] . जिणमय अवहीलाए, जं दुक्खं पावणंति अण्णाणी। णाणीण संभरित्ता, भयेण हिययं थरत्थरई ।।69।। जिनमत की अवज्ञा करने मात्र से अज्ञानी जीवों को जितना दुख प्राप्त होता है, उन दुखों का स्मरण करने से ही ज्ञानी पुरूषों का हृदय थर-थर कांप उठता है। जो गिह कुटुंब सामी, संतो मिच्छत्त रोयणं कुणई। तेण सयलो वि वंसो, परिखित्तो भव समुद्दम्मि।।7।। जो घर-कुटुम्ब का स्वामी होकर मिथ्यात्व की रूचि और प्रसंसा करता है उसने अपने समस्त कुल को संसार समुद्र में डुबो दिया। जइ अइ कलम्मि खुत्तं, सगडं कड्ढंति केवि धुरि धवला। तह मिच्छाउ कुडुंबं, इह बिरला केवि कड्ढंति।।7।। जैसे अत्यंत कीचड़ में फंसी हुई गाड़ी को बलवान वृषभ ही बाहर खींच पाते हैं, वैसे ही इस लोक में मिथ्यात्वरूपी कीचड़ में फंसे हुए अपने कुटुम्ब को उसमें से कोई विरला उत्तम पुरूष ही बाहर निकाल पाता है। किं सो बिजणणि जाओ, जाओ जणणीण किंगओ पुट्ठी। जइ मिच्छरओ जाओ, गुणेसु तह मच्छरं बहई ।।81।। जो पुरूष मिथ्यात्व में लीन है और सम्यक्त्वादि गुणों के प्रति मत्सर भाव रखता है तो उस पुरूष ने माता के पेट से जन्म ही क्यों लिया? उसका जन्म लेना व्यर्थ है। सम्मत्त संजुयाणं, बिग्घंपि होइ उच्छउ सारिच्छं। परमुच्छवंपि मिच्छत, संजुअं अइ महा विग्धं ।।85।। सम्यक्त्व सहित जीव को विघ्न भी हो तो वह उसे उत्सव समान मानता है और मिथ्यात्व सहित जीव को परम उत्सव भी हो तो वह उसे महाविघ्न है।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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