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________________ जिनागम के अनमोल रत्न ] [31 और ग्रीष्म ऋतु में पर्वत की चोटियाँ पर स्थित हुआ; परन्तु अपने चैतन्यस्वरूप आत्मा में मैंने कभी स्थिति नहीं की । 15-15।। अधीतानि च शास्त्राणि बहुबारमनेकशः । मोहतो न कदा शुद्ध चिदूपप्रतिपादकं । मैनें बहुत बार अनेक शास्त्रों को पढ़ा, परन्तु मोह से मत्त हो ' शुद्धचिद्रूप' का स्वरूप समझाने वाला एक भी शास्त्र न पढ़ पाया।।5-17।। न गुरु: शुद्धचिदू पस्वरूपप्रतिपादकः । लब्ध्ये मन्ये कदाचित्तं विनाऽसौ लभ्यते कथं ॥ शुद्धचिद्रूप का स्वरूप प्रतिपादन करने वाला आज तक मुझे कोई गुरु भी न मिला और जब गुरु ही कभी न मिला तब शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति हो ही कहां सकती थी? अर्थात् बिना शुद्धचिद्रूप के स्वरूप के मर्मज्ञ गुरू के शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति सर्वथा दुःसाध्य है। 15-18।। व्यक्त और अव्यक्त दोनों प्रकार के विकल्पों से मैं सदा भरा रहा, कभी मैं अपने संकल्प-विकल्पों को दूसरे के सामने प्रगट करता रहा और कभी मेरे मन से ही वे टकराकर नष्ट होते रहे इसलिये आज तक मुझे 'शुद्धचिद्रूप' के चिंतवन करने का कभी अवकाश भी न मिला । 15-22 ।। चिद्रूप की चिन्ता में लीन मुझे अनेक मनुष्य बाबला- पागल खोटे ग्रहों से अस्त-व्यस्त, पिसाचों से ग्रस्त, रोगों से पीड़ित, भाँति-भाँति के परिषहों से विकल, बुड्ढा, बहुत जल्दी मरने वाला होने के कारण विकृत और ज्ञान शून्य हो घूमने वाला जानते है, सो जानो, परन्तु मैं ऐसा नहीं हूँ, क्योंकि मुझे इस बात का पूर्ण निश्चय है कि मैं शुद्धचित्स्वरूप हूँ । । 6-1 ।। उन्मत्तं भ्रांतियुतं गतनयनयुगं दिग्विमूढं च सुप्तं, निश्चितं प्राप्तमूर्च्छ जलवहनगतं, बालकावस्थमेतत् । स्वस्याधीनं कृतं वा ग्रहिलगतिगतं ब्याकुलं मोहधूत्तैः, सर्वं शुद्धात्मदृग्भीरहितमपि जगत् भाति भेदज्ञचित्ते ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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