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________________ 30] [जिनागम के अनमोल रत्न विमुच्य शुद्धचिद्रूप चिंतनं ये प्रमादिनः। अन्यत् कार्य च कुर्वत ते पिवंति सुधां विषं।। जो आलसी मनुष्य सुख-दुख और उनके कारणों को भले प्रकार जानकर भी प्रमाद के उदय से शुद्धचिद्रूप की चिन्ता छोड़ अन्य कार्य करने लग जाते हैं, वे अमृत को छोड़कर महा दुखदायी विषपान करते हैं । इसलिये तत्वज्ञों को 'शुद्धचिदूप' का सदा ध्यान करना चाहिये।।4-18।। मैं अनंतबार अनन्तभवों में मरा; परन्तु मृत्यु के समय 'मैं शुद्धचिद्रूप हूँ' ऐसा स्मरण कर कभी न मरा। 15-3।। मैंने कल्पवृक्ष, खजाने, चिन्तामणि रत्न और कामधेनु प्रभृति लोकोत्तर अनन्य लभ्य विभूतियां प्राप्त कर ली; परन्तु अनुपम 'शुद्धचिद्रूप' नाम की संपत्ति आज तक कहीं न पाइ ।।5-4।। इंदादीनां पदं लब्धं पूर्वं विद्याधरेशिनां। ___ अनंतशोऽहमिंदस्य स्वस्वरूपं न केवलं। . मैंने पहले अनेकबार इन्द्र, नृपति आदि उत्तमोत्तम पद भी प्राप्त किये। अनन्तबार विद्याधरों का स्वामी और अहमिंद्र भी हुआ; परन्तु आत्मिकरूपशुद्धचिद्रूप का लाभ न कर सका।।5-6।। मया निःशेष शास्त्राणि ब्याकृतानि श्रुतानि च। तेभ्यो न शुद्धचिदूपं स्वीकृतं तीव्रमोहिना।। मैंने संसार में अनंतबार कठिन से कठिन भी अनेक शास्त्रों का व्याख्यान कर डाला और बहुत से शास्त्रों का श्रवण भी किया, परन्तु मोह से मूढ़ हो उनमें जो शुद्धचिद्रूप का वर्णन है, उसे कभी स्वीकार नहीं किया।।5-8।। शीतकाले नदीतीरे वर्षाकाले तरोरधाः। ग्रीष्म नगशिरोदेशे स्थितो न स्वे चिदात्मनि।। बहुत बार मैं शीतकाल में नदी के किनारे, वर्षा काल में वृक्ष के नीचे
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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