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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [213 मूढ़ा लोभपराः क्रूरा भीरवोऽसूयकाः शठाः। भवाभिनन्दिनः सन्ति निष्फलारम्भकारिणः।।8-19।। अर्थ :- जो मूढदृष्टि (मिथ्यादृष्टि)-लोभ में तत्पर, क्रूर, भीरू (डरपोक), ईर्ष्यालु और शठ-विवेकहीन है-वह निष्फल आरंभ करने वाला-निरर्थक आचरण करने वाला 'भवाभिनन्दी' है। आराधनाय लोकानां मलिनेनान्तरात्मना। क्रियते या क्रिया बालैर्लोकपक्तिरसौमता।।8-20।। अर्थ :- अविवेकी साधुओं के द्वारा मलिन अन्तरात्मा युक्त होकर लोगों का आराधन-अनुरंजन अथवा अपनी तरफ आकर्षण करने के लिये जो धर्मक्रिया की जाती है वह 'लोक-पति' कहलाती है। मायामयौषधं शास्त्रां-शास्त्रं पुण्यनिबन्धनम्। चक्षुः सर्वगतं शास्त्र-शास्त्रं सर्वार्थसाधकम्।।8-73।। अर्थ :- मायारूप रोग की दवा शास्त्र है, उत्कृष्ट पुण्यबन्ध का कारण शास्त्र है, सर्वपदार्थों को देखने वाला नेत्र शास्त्र है, तथा सर्व आत्महित के प्रयोजन का साधक शास्त्र है। स्वाध्याय परमं तपः जिस जिनागम के द्वारा अतिशय चंचल मन को नियमित किया जाता है, पूर्वोपार्जित कर्म को नष्ट किया जाता है तथा संसार के कारणभूत आस्रव को रोका जाता है, उस पूज्य जिनवाणी का जो उत्तम रीति से अध्ययन किया जाता है उसे स्वाध्याय तप कहते हैं। - आ. अमितगति सु.र. 888|
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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