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________________ 212] . [जिनागम के अनमोल रत्न से अध्ययन के योग्य, ध्यान के योग्य, आराधने योग्य, पूछने योग्य, सुनने योग्य, अभ्यासने योग्य, संग्रहने योग्य, जानने योग्य, कहने योग्य, प्रार्थने योग्य, प्राप्त करने योग्य, देखने योग्य और स्पर्शने योग्य होता है, जिससे उसके अध्ययनादि से सदा आत्मस्वरूप की स्थिरता वृद्धि को प्राप्त हो। आत्मध्यानरतिज्ञेयं विद्वतायाः परं फलम्। अशेष-शास्त्र-शास्तृत्वं संसारोऽभाषि धीधनैः।।7-43।। अर्थ :- विद्वत्ता का उत्कृष्ट फल आत्मध्यान में रति-लीनता जानना चाहिये। इसके बिना सभी शास्त्रों का शास्त्रीपना बुद्धिमानों के द्वारा-ज्ञानियों के द्वारा 'संसार' कहा गया है। संसारः पुत्र-दारादिः पुंसां संमूढचेतसाम्। संसारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मरहितात्मनाम्।।7-44।। अर्थ :- जो मनुष्य भले प्रकार मूढ़चित्त हैं उनका संसार 'स्त्री-पुत्रादिक' है, और जो अध्यात्म से रहित (आत्मज्ञान से रहित) विद्वान हैं उनका संसार 'शास्त्र' हैं। . . अर्थ :- कुतर्क ज्ञान को रोकने वाला, शांति का नाशक, श्रद्धा को भंग करने वाला और अभिमान को बढ़ाने वाला मानसिक रोग है कि जो अनेक प्रकार से ध्यान का शत्रु है। इसलिये मोक्षाभिलाषी जीवों को कुतर्क में अपना मन लगाना योग्य नहीं, बल्कि आत्मतत्त्व में लगाना योग्य है, जो स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धि-सदन में प्रवेश कराने वाला है। 7-53।। भवाभिनन्दनः केचित् सन्ति संज्ञा-वशीकृताः। कुर्वन्तोऽपि परं धर्मं लोकपक्ति कृतादशः।।8-18।। अर्थ :- कितने ही मुनि परम धर्म का अनुष्ठान करने पर भी 'भवाभिनन्दी'-संसार का अभिनन्दन करने वाले होते हैं । आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इन चार संज्ञाओं के वशीभूत होते हैं, और 'लोकपक्ति ' का आदर करते हैं अर्थात् लोगों को रिझाने में प्रवर्तन करते हैं।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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