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________________ जिनागम के अनमोल रत्न ] [183 भी अनात्मा (परद्रव्य) के साथ कदापि तादात्म्यवृत्ति को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि आत्मा एक है वह अन्य द्रव्य के साथ एकतारूप नहीं होता । 22 ।। अयि कथमपि मृत्वा तत्वकौतूहली सन्, अनुभव भव मूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहुर्तम् । पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन, त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ॥ 123 ।। आचार्य सम्बोधन करते हैं कि हे भाई! तू किसी प्रकार महाकष्ट से अथवा मरकर भी तत्व का कौतूहली होकर इस शरीरादि मूर्त द्रव्य का एक मुहूर्त पड़ौसी होकर आत्मानुभव कर कि जिससे अपने आत्मा के विलासरूप, सर्व परद्रव्यों से भिन्न इस शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्य के साथ एकत्व के मोह को शीघ्र ही छोड़ देगा । भावार्थ - यदि यह आत्मा दो घड़ी पुद्गल द्रव्य से भिन्न होकर अपने शुद्धात्मा का अनुभव करे, परीषह आने पर न डिगे, तो घातिया कर्म का नाश करके, केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष को प्राप्त हो । आत्मानुभव की ऐसी महिमा है । तब मिथ्यात्व का नाश करके सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होना तो सुगम है । 23 ।। निर्भरममी सममेव लोका, समस्ताः। मंज्जंतु आलोक मुच्छलति शांतरसे आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिंधुः ।।32 ।। भरेण, यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा विभ्रमरूपी आड़ी चादर को समूलतया डुबोकर स्वयं सर्वांग प्रगट हुआ है, इसलिये अब समस्त लोक उसके शांत रस में, एक साथ ही, अत्यन्त मग्न हो जाओ जो शान्तरस समस्त लोक पर्यंत उछल रहा है।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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