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________________ 182] [जिनागम के अनमोल रत्न उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं, क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम्। किमपरमभिछमो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मि न्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव।।१।। आचार्य शुद्धनय का अनुभव करके कहते हैं कि इन समस्त भेदों को गौण करने वाला जो शुद्धनय का विषयभूत चैतन्य-चमत्कार मात्र तेजःपुञ्ज आत्मा है, उसका अनुभव होने पर नयों की लक्ष्मी उदित नहीं होती, प्रमाण अस्त हो जाता है और निक्षेपों का समूह कहां चला जाता है सो हम नहीं जानते। इससे अधिक क्या कहें? द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता। आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यंतविमुक्तमेकम्। विलीनसंकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोभ्युदेति।। शुद्धनय आत्मस्वभाव को प्रगट करता हुआ उदयरूप होता है। वह आत्मस्वभाव को परद्रव्य, परद्रव्य के भाव तथा परद्रव्य के निमित्त से होने वाले अपने विभाव-ऐसे परभावों से भिन्न प्रगट करता है और वह, आत्मस्वभाव सम्पूर्णरूप से पूर्ण है, आदि अन्त से रहित है, सर्व भेदभावों से रहित एकाकार है, जिसमें समस्त संकल्प-विकल्प के समूह विलीन हो गये हैं ऐसा प्रगट करता है । non त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीनं, रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् । इह कथमपि नात्मानात्मना साकमेकः, किल कलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्तिम्।।22।। हे जगत के जीवो! अनादि संसार से लेकर आज तक अनुभव किये गये मोह को अब तो छोड़ो और रसिक जनों को रूचिकर, उदय हुआ जो ज्ञान उसको आस्वादन करो, क्योंकि इस लोक में आत्मा वास्तव में किसी प्रकार
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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