SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 124] [जिनागम के अनमोल रत्न ( 20 ) सज्जनचित्तबल्लभ किन्दीक्षा ग्रहणेन ते यदि धनाकांक्षा भवेच्चेतसि । किङ्गार्हस्थमनेन वेष धरणेनासुन्दरम्मन्यसे ।। द्रव्योपार्जन चित्तमेव कथयत्यभ्यन्तरस्थाङ्गनां । नोचेदर्थपरिग्रह ग्रहमतिर्मिक्षो न सम्पद्यते ।। जो धन की रूचि है र अन्तर, संयम धारण सार न जानै । ऐसे अपावन वेश बनावन से, घर-बार बुरा किस मानै ।। द्रव्य उपार्जन चित्त निरन्तर, अन्तर कामिनि चाह बखानै । नातर हे मुनि अर्थ परिग्रह लेन की बुद्धि, कदापि न हानै ।। टीका- हे भिक्षुक साधु ! यदि तेरे चित्त में धनादिक की इतनी चाह रहती है, तो तूने दीक्षा ही क्यों ग्रहण की ? अर्थात् जिनदीक्षा ग्रहण करने पर भी धनादिक के प्रति लिप्सा है, तो गार्हस्थ एवं मुनि जीवन में पार्थक्य क्या रहा? अतः तूने जिन दीक्षा लेने का महत्व ही नहीं समझा है। दीक्षा के पश्चात् भी धनादिक के प्रति आकर्षण स्त्री जनों के प्रति अभिलाषा की ही अभिव्यक्ति करता है । यदि स्त्री की अभिलाषा न होती तो धन संचय की प्रवृत्ति ही क्यों होती ? ।। 5 ।। - दुर्गन्धं वदनं वपुर्मलभृतम्भिक्षाटनाङ्कम्भोजनं, शय्या स्थण्ठिल भूमिषु प्रतिदिनं कट्यां न ते कर्पटं । मुण्डं मुण्डितमर्द्ध दग्धशववत्त्वं दृश्यते भो जनैः, साधोद्याप्यबलाजनस्य भवतो गोष्ठी कथं रोचते ।। आवत गन्ध बुरी मुख में, अरु धूसर अंग, भिक्षा कर खाना, भूमि कठोर विषे नित सोवत, ना कटि में कोपीन प्रमाना । मुण्डित मुण्ड, परै दृग लोकन अर्द्धजले मृत अङ्ग समाना, नारिन के संग भो मुनि अद्यपि चाहत क्यों कर बात बनाना ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy