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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] . [123 विरक्त ज्ञानी पुरूष लाख गुना फल प्राप्त करता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। 80।। जिनागम का अध्ययन ही ध्यान है। उसी से पंचेन्द्रियों का और कषायों का भी निग्रह होता है, इसलिये इस पंचमकाल में प्रवचनसार (जिनागम) का ही अभ्यास करना चाहिये।।90।। जोइस-बेज्जा मतोवजीवणं वायवस्स ववहारं । धणधण्णपरिग्गहणं समणाणं दूसणं होदि।। ज्योतिष, वैद्यक, मन्त्र-विद्या द्वारा उपजीविका का चलाना, भूत-प्रेत की झाड़-फूंक का व्यापार करना, धन-धान्य का प्रतिग्रहण करना-ये काम श्रमण-मुनियों के लिये दूषण स्वरूप हैं। 103 ।। जैसे चर्म, अस्थि और मांस खण्ड का लोभी कुत्ता मुनि को देखकर भोंकता है, इसी प्रकार जो पापी है, वह स्वार्थवश धर्मात्मा को देखकर कलह करता है। 106 ।। कोहेण य कलहेण य, जायणसीलेण संकिलेसेण। रुद्देण य रोसेण य, भुञ्जदि किं विंतरो भिक्खू।।।12।। जो साधु-क्रोध से, कलह करके, याचना करके, संक्लिष्ट परिणामों से, रौद्र परिणामों से और रुष्ट होकर आहार ग्रहण करता है, वह क्या साधु है? वह तो व्यंतर है। वयगुणसील परीसहजयं च चरियं तवं छडावसयं। झाणज्झयणं सव्वं, सम्म विणा जाण भववीज।।121।। व्रत, गुण, शील, परीषह जय, चारित्र, तप, षट् आवश्यक ध्यान और अध्ययन यह सब सम्यक्त्व के बिना भव-बीज (संसार का कारण) जानो। जैसे कोई पुरुष रलद्वीप को प्राप्त होने पर भी रत्नद्वीप में से रत्नों को छोड़कर काष्ठ ग्रहण करता है, वैसे ही मनुष्य भव में धर्म भावना का त्याग करके अज्ञानी भोग की अभिलाषा करते हैं। श्री भगवती आराधना
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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