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________________ अब आत्मा एवं शरीर पर घटाकर देखिए। अरूपी आत्मा एक पदार्थ है, वस्तु ह,वास्तविक सत्तात्मक द्रव्य है। रूपी शरीर भी एक पदार्थ है,वस्तु है,वास्तविक सत्तात्मक द्रव्य है। इनको जानने वाले ज्ञान की भी सत्ता है और उनको कहने वाले शब्दों की भी सत्ता है। इनकी सत्ता है अतः ये सत्तात्मक पदार्थ सत्य हैं। अब जो यदि पदार्थ का, पदार्थ के ज्ञान का एवं पदार्थ को कहने वाले शब्द का सुमेल हो जाये तो ज्ञान भी सत्य,वाणी भी सत्य और वस्तु/पदार्थ तो सत्य है ही ! यही स्व-पा का विभेदक ज्ञान ही भेदज्ञान कहलाता है और इस भेदज्ञान पूर्वक ही निज , शुद्धात्मा का अनुभव प्रगट हो जाता है। मुक्ति का मार्ग मिल जाता है, अतीन्द्रिय आनंद की कणिका प्रगट हो जाती है। इसी में लीन रहते-रहते कैवल्य सूर्य प्रगट हो जाता है। सहज चिदानंद । | धर्म्यध्यान- आगम के आलोक में 5 (१)श्लोकवार्तिक- जो जो ज्ञान वह ध्यान है।(२) बारसणुपेक्खा - (आ. कुंदकुंद देव) - सुद्धव जोगेण पुणो धम्म सुक्खं च होदि जीवस्स। तह्या संवरहेदू झाणो त्ति विंचतिए णिच्चं ॥१४॥ (३)बृहदद्रव्यसंग्रह- गाथा ५७- अत्राह शिष्यः । अद्य काले ध्यानं नास्ति। कस्मादिति चेत् उत्तम सहननाभावाद्दशचतुर्दश-पूर्वगत श्रुतज्ञानाभावाच्च। अत्र परिहारः - शुक्लध्यानं नास्ति धर्म्यध्यानमस्तीति। तथाचोक्तं मोक्षप्राभृते श्री कुंदकुंदचार्य दैवे:- 'भरहे दुस्समकाले धम्मज्झार्ण हवेइ णाणिस्स । तं अप्पसहावठिए ण हु मण्णइ सो दुअण्णाणि॥१॥ अज्जावि तिरयणसुद्धा अप्पा झाऊण लहइ इंदत्तं। लोयतियदेवत्तं तत्थ चुदा णिव्बुदि जंति ॥२॥ अर्थ-यहाँ शिष्य कहता है, -इस पंचम काल में ध्यान नहीं है, क्यों कि इस काल में उत्तम संहनन । का अभाव है और दश तथा चौदह पूर्व का श्रुतज्ञान भी नहीं है। समाधान-इस काल में शुक्लध्यान नहीं है, परंतु धर्म्यध्यान है। श्री कुंदकुंदाचार्य देव ने मोक्षप्राभृत में (गाथा ७६-७७)में कहा है कि भरतक्षेत्र में दुःषम नामक पंचम काल में ज्ञानी जीव को धर्म्यध्यान होता है। वह धर्म्यध्यान आत्मस्वभाव में स्थित होने वाले को होता है। जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है। अब भी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप तीन रत्नों से शुद्ध जीव आत्मा का ध्यानकरके इंद्रपद अथवा लोकांतिक देवपद प्राप्त करते हैं और वहाँ से चयकर (मनुष्य होकर) मोक्ष को प्राप्त करते हैं। (४)कार्तिकेयानुप्रेक्षा-गाथा ४७१-४७२ की टीका-धर्मो वस्तुस्वरूपं धर्मादनपेतं धर्म्यध्यानं तृतायम्॥४७१॥ .......धर्म्य धर्मे स्वस्वरूपे भवं धर्म्यं ध्यानम् ।।२। । अर्थ- धर्म याने वस्तुस्वरूप(वस्तु का स्वभाव), वस्तु स्वरूप से रहित न हो ऐसा जो ध्यान उसको धर्म्यध्यान कहते हैं। धर्म के बिना इस ध्यान का अस्तित्व नहीं पाया जाता। धर्म्य याने निजात्मा के स्व-स्वभावमय धर्म में होने वाला वह धर्म्यध्यान है।
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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