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________________ ५९ दि. १५.०१.०६. आदरणीय आगमवेत्ता विद्वद्वर श्री पं.रतनलाल जी बैनाड़ा जैन-आगरा, सादर जयजिनेंद्र, दर्शनविशुद्धि। आपके ०१.११.२००५ के पत्र में वांछित आगम प्रमाण मैंने अपने २८.११.०५ के पत्रोत्तर में भेजे थे। जो आपको दिसंबर के प्रथम सप्ताह में मिल गया होगा। अब आपने मेरे द्वारा पूर्व दो पत्रों में दि.३०.०९.०५/०१.११.०५ एवं २८.११.०५)उद्धृत आगम प्रमाणों का सर्व पूर्वाग्रह छोड़कर निष्पक्ष भाव से चिंतन मनन कर, व्यक्ति निष्ठता को छोड़कर आगम निष्ठता को शिरोधार्य कर समीचीन निर्णय/समाधान प्राप्त कर लिया होगा तथा जो उत्तर/ विचारणीय बिंदु पुन : आपके ज्ञान में आये हों(जो आप मुझे विचारार्थ भेजने वाले थे) शीघ्र भेजने की कृपा करें। मेरे और आपके बीच हुए उपारोक्त पत्राचार से, मैं आशा करता हूँ कि अब आपको निम्नलिखित तथ्यों/ सिद्धांतों का निश्चय/निर्णय हो गया होगा। १.मोह का अर्थ मिथ्यात्व/ दर्शनमोह है न कि चारित्रमोह। दर्शनमोह है तो चारित्रमोह तो है ही। २. मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी चतुष्क के अभाव में प्रगट होने वाला विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान रूप परिणाम ही निश्चय सम्यग्दर्शन है, जो यदि क्षायिक रूप हो तो चतुर्थ गुणस्थान से लेकर अरिहंत-सिद्धावस्था तक (सादि अनंतकाल पर्यंत) एक सा ही रहता है। देव-शास्त्रगुरु एवं प्रयाजनभूत तत्त्वों के श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं। ३. 'क्षायिक'को वीतराग एवं औपशमिक/क्षायोपशमिक'को सराग सम्यग्दर्शन भी कहते हैं। ४. श्रावकावस्था में क्षायिक सम्यग्दर्शन को सराग सम्यग्दर्शन तथा मुनिदशा में उसे ही वीत- राग सम्यग्दर्शन कहते हैं। सरागावस्था में सराग एवं वीतरागावस्था में वीतराग नाम पाताहै। ५. सराग सम्यग्दर्शन को व्यवहार एवं वीतराग सम्यग्दर्शन को निश्चय सम्यग्दर्शन भी कहते हैं। परमार्थ से निजशुद्धात्मा की रुचि/प्रतीतिरूप निश्चयसम्यग्दर्शन तो चतुर्थ गुणस्थान में ही प्रगट पूर्ण हो जाता है। निश्चय सम्यग्दर्शन भेदरहित एक ही प्रकार का है। ६. अनंतानुबंधी निश्चय से चारित्रमोह की प्रकृति होने पर भी सम्यक्त्व एवं चारित्र दोनों का घात करती होने से द्विस्वभावी है। जैसे कैन्सर रोग मनुष्य पर्याय के नाश का कारण है, वैसे ही अनंतानुबंधी का उदय सम्यक्त्व के नाश का कारण है। ७.सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्व (दर्शनमोह) का अनुदय होने से मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला विपरीताभिनिवेश वहाँ नहीं पाया जाता इसलिए उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते, किंतु सम्यग्दर्शन और चारित्र का प्रतिबंध करने वाली अनंतानुबंधी कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश वहाँ पाया जाता है, इसी से इसको सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं।। आसादना सहित जिसकी समीचीन दृष्टि होती है वह सासादन सम्यग्दृष्टि कहालाता है। .
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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