SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७ हुआ विपरीताभिनिवेश वहाँ नहीं पाया जाता है, इसलिए उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते हैं, किंतु सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं। शंका-पूर्व कथन के अनुसार जब वह मिथ्यादृष्टि ही है तो फिर उसे मिथ्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी गयी है? समाधान-ऐसा नहीं है, क्यों कि सासादन गुणस्थान को स्वतंत्र कहने से अनंतानुबंधी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है। __दर्शन मोहनीय के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से जीवों के सासादनरूप परिणाम तो उत्पन्न होता नहीं है, जिससे कि सासादन गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता, तथा जिस अनंतानुबंधी के उदय से दूसरे गुणस्थान में विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनंतानुबंधी दर्शनमोहनीय का भेद न होकर चारित्र का आवरण करने वाला होने से चारित्रमोहनीय का भेद है। इसलिए दूसरे गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि न कहकर सासादन सम्यग्दृष्टि कहा है। शंका-अनंतानुबंधी सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबंध होने से उसे उभयरूप (सम्यक्त्व चारित्रमोहनीय)संज्ञा देना न्याय्य संगत है ? समाधान-यह आरोप ठीक नहीं, क्यों कि यह तो हमें इष्ट ही है। अर्थात् अनंतानुबंधी को सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबंधक माना ही है। वस्तुतः विपरीताभिनिवेश दो प्रकार का होता है, अनंतानुबंधी जनित और मिथ्यात्वजनित! दूसरे गुणस्थान में अनंतानुबंधीजनित विपरीताभिनिवेश ही पाया जाता है। इसलिए मिथ्यात्व गुणस्थान से भिन्न इसे स्वतंत्र सासादन गुणस्थान. माना गया है। ७. चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग होता है। ऊपर बिंदु क्र.३ बृहद् द्रव्यसंग्रह की टीका के आधार से अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थगुणस्थानवर्ती का स्वरूप/ परिभाषा दी गयी है। उसी प्रकार प्रवचनसार गाथा ८० ता.वृ. टीका में आया है। जिसे मैं पूर्व पत्रों में भी उद्धृत करता आ रहा हूँ। उसमें इस प्रकार कथन है-..... . ......अथ चत्ता पावारम्भ इत्यादि सूत्रेण यदुक्तं शुद्धोपयोगाभावे मोहादिविनाशो न भवति, मोहादि विनाशाभावे शुद्धात्मलाभो न भवति।..... तत् आत्मपरिज्ञानात् तस्य मोहो दर्शनमोहो लयं विनाशं क्षयं यातीति ।......इत्थंभूतं द्रव्यगुणपर्यायस्वरूयं पूर्वमर्हदभिधानेपरमात्मनिज्ञात्वापश्चान्निश्चयनयेन तदेवागमसारपदभूतयाऽध्यात्म भाषया निजशुद्धात्मभावनाभिमुखरूपेण सविकल्प स्वसंवेदन ज्ञानेन तथैवागम भाषयाधःप्रवृत्ति करणापूर्व - करणानिवृत्तिकरण संज्ञ दर्शनमोहक्षपण समर्थ परिणाम विशेषबलेन पश्चादात्मनि योजयति। तदनंतरमविकल्पस्वरूप रूपे प्राप्ते...... दर्शनमोहान्धकारः प्रलीयते इतिभावार्थः ॥८०॥ ८. चतुर्थगुणस्थान में शुद्धात्मानुभूति होती है। समयसार गाथा १३ आत्मख्याति टीका में - ‘एवमसावकत्वेन द्योतमानः शुद्धनयत्वेनानुभूयत एव । या तु अनुभूतिः सात्मख्याति - रेवात्मख्यातिस्तुसम्यग्दर्शनमेव । इति समस्तमेव निरवद्यम्।'.... ऐसा स्पष्ट उल्लेख है।
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy