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________________ ४७ मिथ्यादर्शन व मिथ्याज्ञान को कारण मानकर उत्पन्न होने का विरोध है। ये दोनों दोष चतुर्थगुणस्थान में नहीं हैं। विरूद्ध कारणों के पूर्ववर्ती होने पर भी उत्तम समय में उत्पन्न हुए कार्यों का यदि भेद होना न माना जायेगा तो सभी वादियों को अपने सिद्धांतों से विरोध हो जायेगा। क्यों कि सभी परीक्षकों ने भिन्न-भिन्न कारणों केद्वारा भिन्न-भिन्न कार्यों की उत्पत्ति होना मान्य किया है।अतः प्रथम व चतुर्थ गुणस्थान के असंयम न्यारे-न्यारे ही हैं। भावार्थ-सम्यक् चारित्र न होने की अपेक्षा से दोनों असंयम एक हैं किन्तु नञ् का अर्थ पर्युदास और प्रसज्य करने पर दर्शन मोहनीय के उदय से सहित अचारित्र को मिथ्या चारित्र कहते हैं और दर्शन मोहनीय के उदय न रहने पर(+अनंतानुबंधी के भी न रहने पर)केवल अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण के उदय से होने वाले असंयम को अचारित्र कह देते हैं। परमार्थत: अनंतानुबंधी चारित्रमोह की प्रकृति है। वह चारित्र का ही घात करती है। सम्यक्त्व का घात नहीं करती परंतु उसका उदय सम्यक्त्व के नाश का कारण अवश्य है। उसे ही सम्यक्त्व का विरोधक सासादन कहा। सम्यक्त्व का अभाव मिथ्यात्व का उदय होने पर ही होता है, वह सासादन में नहीं हुआ। वहाँ २ रे गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्व का ही काल है, इसीलिए उसे सासादन सम्यग्दृष्टि कहा है, सासादन मिथ्यादृष्टि नहीं कहा। आ.क.पं.टोडरमलजी ने मो.मा.प्र.में पृ.९२ पर इसीलिए सत्य ही लिखा है कि- 'मिथ्याचारित्र में स्वरूपाचरण चारित्र का अभाव है इसीलिए इसका नाम अचारित्र भी कहा जाता है। परंतु अविरत सम्यग्दृष्टि के मिथ्याचारित्र होता ही नहीं तो उसके अचारित्र को सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहा तथा उसे ही आत्मज्ञानी विद्वानों ने स्वरूपाचरण चारित्र कहा है। अतः यह जीव मोक्षमार्गी है। जघन्य अंतरात्मा है।(-देखो-कार्तिकेयानुप्रेक्षा- गाथा १९७ तथा वारसाणुवेक्खा गा.१८) जिज्ञासा१४-सम्यक्त्वाचरणं (मोक्षपाहुड गाथा ५ से १०) एवं स्वरूपाचरणचारित्र में क्या अंतर है? ___ समाधान यह है कि शंकादि २५ मल दोषों से रहित अष्टांग सहित सम्यग्दर्शन को धारण करना सम्यक्त्वाचरण चारित्र है(व्यवहार है)और दर्शनमोह के साथ जो अनंतानुबंधी कषायों का अभाव हुआ तत्फल स्वरूप आत्मा (चारित्र) में जो विशुद्धि प्रगट हुई, शान्ति-समता का वेदन-परिणमन हुआ वही स्वरूपाचरण चारित्र है। बाह्य व्रतादि न होने से इसे ही असंयम कहा। मिथ्यात्व के अभाव में आस्तिक्य एवं अनंतानुबंधी के अभाव में प्रशम, संवेग, अनुकंपा, आत्मनिंदा-गर्हादि गुण प्रगट होते हैं। ऐसा कहना भी गलत नहीं होगा। जिज्ञासा १५-मोक्षमार्ग में प्रमट होने वाला संवर-निर्जरा तत्त्व क्या शुभ भाव रूप भी है या वीतरागभाव(शुद्ध भाव)रूप ही है? मोक्षमार्ग अर्थात् साधक अवस्था (चतुर्थ से बारहवें गुणस्थान तक) अथवा बुद्धिपूर्वक
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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