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________________ ४३ सम्यक्त्वोपलब्धि से पूर्व जिनोपदिष्ट तत्त्वों का श्रवण, ग्रहण, धारण, निर्धारण होता है। धारणा ज्ञान तक यह जीव अनेकों बार आ जाता है, परंतु निर्धारण नहीं करता कि यह उपदेश मेरे भव रोग जन्म मरण मिटाने की औषधि है तथा जो प्रायोग्यलब्धिस्थ जीव को 'यह ऐसे ही है' ऐसी सविकल्प ज्ञान में निर्णयात्मक रुचि हो जाये तो ही वह शुद्धात्माभिमुख परिणाम रूप करणलब्धि में प्रवेश कर सकता है,अन्यथा नहीं। अर्थात् जो यदि उसे आत्मा का विश्वास ही न आये तो क्या वह प्रायोग्यलब्धि तक आया कहलायेगा?फिर वह अपने मति श्रुत ज्ञानोपयोग को स्वरूप सन्मुख क्यों कर करेगा? (देखो-स.सा.-१४४-आत्मख्याति टीका) यह बात तो आपने स्वीकार ही ली है कि 'सम्यक्त्व समान तो आत्मा का विश्वास भी समान । क्यों कि अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अनुदय आत्मविश्वास में कोई विशेषता लाने में समर्थ नहीं है। तब फिर बन्धुवर ! प्रत्याख्यानावरण का अनुदय उस आत्मा को विश्वास में क्यों कैसे कोई विशेषता डाल सकता है? क्यों कि आत्मविश्वास का संबंध तो मात्र दर्शन मोहनीय + अनंतानुबंधी चतुष्क से है, न कि अप्रत्याख्यानवरणादि कषायों से ! अत: यह बात ही कि 'निश्चय सम्यक्त्व तो चतुर्थ गुणस्थान में ही हो जाता है।'- स्वीकारने में आगम का अपलाप नहीं है वरन् ऐसा नहीं स्वीकारने में आगम का अपलाप है। इस सच्ची आत्मप्रतीति रूप निश्चय सम्यक्त्व को ही चारित्रिक अस्थिरता के कारण सरागता के सद्भाव के कारण सराग सम्यक्त्व एवं संयमी मुनिराज को चारित्रिक स्थिरता के कारण वीतराग सम्यक्त्व संज्ञा मिलती है। क्षायिक सम्यक्त्व तो चतुर्थ गुणस्थान से लेकर गुणस्थानातीत सिद्धावस्था में (सादिअनंतकाल पर्यंत) यथावस्थित रूप से अपरिवर्तनीय ही रहता है। आगम-अध्यात्म का सुमेल बैठाने से ही यह बात बैठेगी, अन्यथा नहीं। जिज्ञासा १० - आपके हिसाब से मुनिराजों को ही आत्मानुभूति होती है तो गृहविरत श्रावकों । (क्षुल्लक,ऐलक,आर्यिका) को भी स्वात्मानुभूति नहीं होती होगी? . बन्धुवर ! समाधान ऊपर किया जा चुका है। स्वात्मानुभूति = आनंदानुभूति का ही नाम है। ऐसी त्याग तपस्या से क्या फायदा जिसमें आनंदानुभूति विकल्पों के भार-बोझ से मुक्ति, निर्भारता, शांत रस का स्वाद, तृप्ति ही न प्रकट हो। जिसकी जितनी कषायें मिटती जाती हैं, वह वह उतना ही निर्भार, हलकापन महसूस करने लग जाता है। यदि चतुर्थ-पंचम गुणस्थानवर्ती जीवों को निराकुलत्व लक्षण अतींद्रिय सुख की कणि का ही प्रकट न होती हो, तो फिर द्रव्यलिंगी मुनि को प्रवचनसार गाथा २७१ में संसार तत्त्व क्यों कहा? क्यों कि न तो उसे आत्मा की श्रद्धा, (सम्यक्त्व)है और न स्वानुभूति (आनंदानुभूति)। अविरतसम्यग्दृष्टि व देशव्रती को द्रव्यलिंगी मुनि से श्रेष्ठ क्यों कहा ? भैया ! विचार करो, मात्र शब्द के जाल
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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