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________________ ४० बोधितबुद्ध ज्ञानी जीवों को भेदज्ञान मूलक शुद्धात्मानुभूति की प्राप्ति होना लिखा है। ... 'अप्रतिबुद्धः स्वसंवित्तिशून्यो बहिरात्माभवति तावत्कालमिति। अत्र भेदविज्ञान मूलां शुद्धात्मानुभूतिं स्वतः स्वयंबुद्धयापेक्षा परतो वा बोधितबुद्धयापेक्षया ये लभंते ते पुरुषाः शुभाशुभ बहिर्द्रव्येषु विद्यमानेष्वपि मुकुरन्दवदविकारा भवंतीति भावार्थः।' __ अर्थात् सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव संसार अवस्था में शुभाशुभ बहिर्द्रव्यों के विद्यमान होते हुए भी दर्पण के समान निर्विकार रहते हैं, ऐसा भावार्थ है। आप समयसार जी में वीतराग निर्विकल्प समाधिरत ज्ञानी सम्यग्दृष्टि की मुख्यता का कथन मानते हैं और अन्य सम्यग्दृष्टियों का गौण रूप से । अब यदि हम ऐसा ही मानकर चलें तब भी समयसार गाथा ३५ (जहणाम को वि पुरिसो...) ता.वृ.टीका में प्रत्याख्यान बाबद् धोबी का दृष्टांत देकर अप्रतिबुद्ध ‘स्वसंवेदन ज्ञानबल'से मिथ्यात्वरागादि परभावों की पर्यायों को ये परकीय हैं (अपने स्वभाव में नहीं है) ऐसा जानकर उन सब परभावों को तत्काल छोड़ देता है और शुद्धात्मानुभूति को अनुभवता है, ऐसा स्पष्टरूप से लिखा है।अर्थात् प्रतिबुद्धता स्वानुभूतिपूर्वक ही होती है यह सिद्ध हुआ। और भी देखिए । श्री जयसेनाचार्य देव समयसार गाथा ३८ (अहमिक्को खलु शुद्धो...)की उत्थनिका में लिखते हैं'अथ शुद्धोत्मैवोपादेय इति श्रद्धानं सम्यक्त्वं तस्मिन्नेव शुद्धात्मनि स्वसंवेदनं सम्यग्ज्ञानं, तत्रैव निजात्मनि वीतराग स्वसंवेदनं निश्चल रूपंचारित्रमिति निश्चय रत्नत्रय परिणत जीवस्य कीदृशं स्वरूपं भवतीत्यावेदयन्सन् जीवाधिकारमुपसंहरति।' इसमें 'स्वसंवेदन' सम्यग्ज्ञान है, कहा ही है और चतुर्थ गुणस्थानवर्ती से उपर के सभी गुणस्थानानुवर्ती जीव सम्यग्ज्ञानी ही होते हैं। बिना स्वसंवेदन ज्ञान के कोई भी जीव सम्यग्ज्ञानी नहीं हो सकता। यह बात सर्व ग्रंथों में लिखी हुई है। पुनश्च समयसार गाथा ५० से ५५ (जीवस्स णत्थि वण्णो....)की टीका में अनेक बार 'शुद्धात्मानुभूते भिन्नत्वात् ' शब्द लिखा है कि ये वर्णादिक से गुणस्थान तक के भाव जीव के.नहीं है। किस कारण से नहीं है? क्यों कि ये सभी पुद्गल द्रव्य के परिणाम होने से 'शुद्धात्मानुभूति से भिन्न हैं।' अब जो यदि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव के शुद्धात्मानुभूति सर्वथा ही न मानी जाये तो उसने मात्र परोक्ष आगमसापेक्ष ज्ञान से इन वर्णादि भावों को अपने से भिन्न जाना कहलायेगा, निश्चय अनुभूति (स्वाद)पूर्वकजाना नहीं कहलायेगा? परंतु ऐसा मानने से सर्वतत्त्वविप्लव हो जायेगा। ग्यारह अंगों आदि का क्षयोपशम वाले मिथ्यादृष्टि जीवों को भी प्रत्यक्ष ज्ञानी मानने का प्रसंग आयेगा, जो कभी किसी प्रकार सही नहीं कहा जा सकता। सभी सम्यग्दृष्टि स्वानुभव प्रत्यक्ष से ज्ञानी है, न कि बाह्य त्याग तपस्या या बाह्य क्षायोपशमिक ज्ञान की अधिकता से। पुनश्च, समयसार गाथा-७० (कोहादिसु वटुंत स...)ता.वृ.टीका में लिखा है'....किंच यावत् क्रोधोद्यासंवेभ्यो भिन्नं शुद्धात्म स्वरूप स्वसंवेदनज्ञानबलेन न जानाति तावत्कालमज्ञानी भवति । अज्ञानी सन् अज्ञानजांकर्तृकर्मप्रवृत्तिं न मुञ्चति तस्माबंधो ।
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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