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________________ अशुभरागादि से बचने के लिए प्रशस्त शुभ राग के निमित्तभूत देव-शास्त्र-गुरु आदि का अवलंबन ले प्रवर्तता है तब वह सराग सम्यग्दृष्टि कहलाता है और जब शुभाशुभ दोनों प्रकार के राग के अवलंबनों को छोड़कर निजशुद्धात्मा का आश्रय-अवलंबन लेता है तब वही जीव वीतराग सम्यग्दृष्टि कहलाता है। ऐसा विशिष्ट पुरुषार्थ मुख्यरूप से निग्रंथ मुनिराज के ही होता प्रमाणः पंचास्तिकाय गाथा-१६५ ता.वृ. टीका एवं तत्त्वप्रदीपिका टीका दोनों देखें। अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि शुद्ध संपओगादो। हवदित्ति दुक्खमोक्खं परसमयरदो हवदि जीवो॥१६५॥ तत्त्वप्रदीपिकाः सूक्ष्म पर समय व्याख्यानमेतत् । अर्हदादिषु भगवत्सु सिद्धिसाधनीभूतेषु . भक्तिबलानुरञ्जिता चित्तवृत्तिरत्र शुद्धसंप्रयोगः।अथखल्वज्ञानलवावेशाद्यदियावज्ज्ञानवानपि तताः शुद्धसंप्रयोगान्मोक्षो भवतीति अभिप्रायेण खिद्यमानस्तत्र प्रवर्तते तदा तावत्सोऽपि राग लवसद्भावात्परसमयरत इत्युपगीयते। अथ न किंपुनर्निरंकुश रागकलिकलंकितान्तरंगवृत्तिरितरो जन इति॥१६५॥ तात्पर्यवृत्ति..... तदाकाले रसमयरतो भवति जीवो स पूर्वोक्तो ज्ञानी जीव इति। तद्यथा कश्चित्पुरुषोनिर्विकार शुद्धात्मभावनालक्षणे परमोपेक्षा संयमे स्थातुमीहते। तत्राशक्त सन् कामक्रोधाद्यशुद्ध परिणाम वंचनार्थ संसारस्थिति छेदनार्थं वा यदा पंचपीमेष्ठिषु गुणस्तवनादि भक्तिं करोति तदा सूक्ष्म पर समय परिणतः सन् सराग-सम्यग्दृष्टिर्भवति इति, यदि पुनः शुद्धात्मभावना समर्थोऽपि तां त्यक्त्वा शुभोपयोगादेव मोक्षो भवतीतेकान्तेन मन्यते तदा स्थूल परसमय परिणामेनाज्ञानी मिथ्यादृष्टिर्भवति।ततः स्थितं अज्ञानेन जीवोनश्तीति। तथा चोक्तं - केचिदज्ञानतानष्टाः केचिन्नष्टाः प्रमादतः। केचिज्ज्ञानावलेपेन,केचिन् नष्टश्च नाशिताः॥१६५॥.. प्रवचनसार गाथा १८१ ता.वृ.। तत्त्वप्रदीपिका भी देखें। ... शुभाशुभ शुद्ध द्रव्यावलम्बनमुपयोग लक्षणं चेति .... अर्थ- प्रशस्त शुभ द्रव्यों (नवदेवता)का अवलंबन शुभोपयोग कहलाता है, पुण्यबंध होता है। अप्रशस्त-अशुभ द्रव्यों (पंचेंद्रिय विषयों) का अवलंबन अशुभोपयोग कहलाता है। पापबंध होता है। शुद्ध आत्मद्रव्य के अवलंबन से शुद्धोपयोग होता है। निजशुद्धात्म(कारण परमात्मा,कारण समयसार) शुद्धध्येय रूप द्रव्य का अवलंबन शुद्धोपयोग कहलाता है। यह चतुर्थ गुणस्थान में नगण्य है, पंचम गुणस्थान में सामायिकादि काल में होता है। (प्रवचनसार गाथा २४८ ता.वृ. टीका)तथा छठवें-सातवें गुणस्थान में प्रमत्तअप्रमत्तवस्थारूप मुनिराज के शुभ व शुद्धोपयोग प्रचुरता से होता ही रहता है। " देखो-प्रवचनसार गाथा २४८ की ता.वृ. टीका 'ननु शुभोपयोगिनामपि क्वापि काले शुद्धोपयोग भावना दृश्यते । शुद्धोपयोगिनामपि
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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