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________________ ३० ज्ञानी शुभाचरण ( भूमिकानुसार व्यवहारधर्माचरण, प्रशस्तराग रूप आचरण को हन्त ! हस्तावलंबन जानते हुए) का आलंबन लेते हैं परंतु उसे साध्य जो निश्चय धर्म नहीं मानते । परमार्थतः निश्चय या व्यवहार रूप दो प्रकार का मोक्षमार्ग या दो प्रकार का सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र नहीं होता है। उसका निरूपण दो प्रकार का होता है। सच्चे मोक्षमार्ग को / सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र को मोक्षमार्ग निरूपित करना सच्चा मोक्षमार्ग / सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र है। और जो स्वयं मोक्षमार्ग या सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र नहीं है, परंतु उस सच्चे मोक्षमार्ग/सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र का निमित्त है, सहचारी है या पूर्वचर रूप से भी पाया जाता है, उसे उपचार से मोक्षमार्ग / सम्यग्दर्शन - ज्ञान-चारित्र कहना सो व्यवहार है व्यवहार मोक्षमार्ग है, व्यवहार सम्यग्दर्शनं -३ -ज्ञान-चारित्र है । स्वश्रितो निश्चयः, पराश्रितो व्यवहारः इस आगम वचन से स्वाश्रित / सच्चा निरूपण सो निश्चय और पराश्रित / उपचार निरूपण सो व्यवहार, किंतु ऐसा न मानकर दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। परमार्थतः साधक अवस्था में दोनों एकसाथ प्रगट होते हैं । अर्थात् उपचरित (व्यवहार) एवं अनुपचरित (निश्चय ) । उपचरित (व्यवहार) सहचारी निमित्त है अनुपचरित ( निश्चय ) यथार्थ है । दर्शन मोह + अनंतानुबंधी कषाय के उपशम-क्षयोपशम-क्षय के निमित्त से जो आत्मानुभूति / आत्मा का विश्वासरूप निश्चय सम्यक्त्व प्रगट होता है उसही को औपशमिकक्षायोपशमिक क्षायिक के भेद से तीन प्रकार का कहा जाता है। उसेही चारित्रगुण की सरागवीतराग अवस्था का आरोप कर सराग- वीतराग सम्यक्त्व कहा जाता है। उसे ही ज्ञानगुण की अल्पज्ञ - सर्वज्ञ अवस्था का आरोप कर अवगाढ़ - परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहा जाता है। तथा अन्य निमित्तादि की अपेक्षा आज्ञा सम्यक्त्वादि सम्यक्त्व के दस भेद भी किये हैं । (देखेंआत्मानुशासन श्लोक-१ ६-११) परमात्मप्रकाश २/१८ की टीका जो आपने स्वयं प्रथम जिज्ञासा समाधान में प्रस्तुत की है उसमें अति स्पष्ट रूप में यह बात कही गयी है कि- सराग सम्यक्त्व को व्यवहार सम्यक्त्व एवं वीतराग सम्यक्त्व को निश्चय सम्यक्त्व कहा है, वह चारित्रमोह की स्थिरता-अस्थिरता की अपेक्षा से ही कहा है। उन तीर्थंकरादि महापुरुषों के शुद्धात्मा उपादेय है ऐसी रुचि रूप निश्चय सम्यक्त्व तो गृहस्थावस्था में भी है, परंतु चारित्रमोह के उदय से स्थिरता नहीं है। अतः उसे सरागावस्था में व्यवहार सम्यक्त्व कहा है। सराग- वीतराग़ सम्यग्दर्शन बाबद अन्य आगम प्रमाण . १. सर्वार्थसिद्धि (१/२) : तद् द्विविधं सराग- वीतराग विषय भेदात् । प्रशम संवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् । आत्मविशुद्धिमात्रमितरत् । २. राजवार्तिक (१/२): सप्तानां कर्मप्रकृतिनां आत्यंतिकेऽपगमे सत्यात्म विशुद्धिमात्र मितरद् । वीतरागसम्यक्त्वमित्यच्यते । ३. अमितगतिश्रावकाचा (२): वीतराग सरागं च सम्यक्त्वं कथितं द्विधा । विरागंक्षायिकं
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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