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________________ ५. बृहद्रव्यसंग्रह की टीका गाथा ४१ में पृ. १४० पर इसप्रकार कहा है'शुद्धजीवादितत्त्वार्थ श्रद्धानलक्षणं सरागसम्यक्त्वाभिधानं व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयम्।... वीतरागचारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति।' अर्थ-शुद्ध जीव आदि तत्त्वार्थों का श्रद्धानरूप सरागसम्यक्त्व व्यवहार सम्यक्त्व जानना चाहिए और वीतराग चारित्र के बिना नहीं होने वाला वीतराग सम्यक्त्व नामक निश्चय सम्यक्त्व जानना चाहिए। ६. भगवती आराधना में कहा है'इह द्विविध सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वं वीतराग सम्यक्त्वं चेति।....तत्र प्रशस्त- रागसहितानां श्रद्धानं सराग सम्यग्दर्शनं। रागद्वयरहितानां क्षीणमोहावरणानां वीतराग सम्यग्दर्शन। . . अर्थ-सम्यक्त्व दो प्रकार का है। सरागसम्यक्त्व और वीतराग सम्यक्त्व । तहाँ प्रशस्तराग सहित जीवों का सराग सम्यक्त्व है और प्रशस्त व अप्रशस्त दोनों प्रकार के राग से रहित क्षीणमोह वीतरागियों का सम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व है। उपरोक्त प्रमाण के अनुसार सम्यग्दर्शन की पर्याय दो रूप होना सिद्ध है। जिज्ञासा ४.- क्षायिक सम्यग्दृष्टि श्रेणिक के जीव को नरक में निश्चय सम्यग्दर्शन है या व्यवहार, या दोनों? समाधान- नरक में श्रेणिक राजा के जीव को मात्र व्यवहारसम्यग्दर्शन है, निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं। क्यों कि निश्चय सम्यग्दर्शन तो निश्चय चारित्र का अविनाभावी है। नरक में निश्चय चारित्र नहीं होता। इसलिए निश्चय सम्यक्त्व भी नहीं है। जैसा कि समयसार गाथा १३ की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने कहा है - 'आर्तरौद्रपरित्यागलक्षणनिर्विकल्पसामायिकस्थितनांयच्छुद्धात्मरूपस्यदर्शनमनुभवनमव लोकनमुपलब्धिः संवित्तिः प्रतीतिः ख्यातिरनुभूतिस्तदेव निश्चयनयेन. निश्चयचारित्राविनाभावि निश्चयसम्यक्त्वं वीतरागसम्यक्त्वं भण्यते।' अर्थ-आर्तरौद्र परिणामों के त्यागरूप लक्षण है जिसका, ऐसी निर्विकल्प सामायिक में स्थित जीव के जो शुद्धात्मरूप का दर्शन अनुभवन, अवलोकन, उपलब्धि, संवित्ति, प्रतीति, ख्याति,अनुभूति होती है वही निश्चयनय के निश्चयचारित्र का अविनाभावी निश्चयसम्यक्त्व वीतरागसम्यक्त्व कहा है। बृहद्रव्यसंग्रह में तो महाराजा भरत के क्षायिक सम्यग्दर्शन को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा गया है। - ‘एषां भरतादीनां यत् सम्यग्दर्शनं तत्तुं व्यवहार सम्यग्दर्शनं।' जिज्ञासा ५.- औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक इन तीनों प्रकार के सम्यग्दृष्टियों को क्या (आत्मानुभूति रहित) आत्मविश्वास एक सदृश होता है?
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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