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________________ 163 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना को ईर्यापथ कर्म कहा जाता है। ये क्रियाएँ यद्यपि गृहीत होती हैं, परन्तु संसार फल को उत्पन्न करने की शक्ति उनमें नहीं होती, इसी कारण उन्हें अगृहीत ही कहा जाता है । इन क्रियाओं से यद्यपि बन्ध होता है, परन्तु यह बन्ध दूसरे समय में ही नष्ट हो जाता है, इसी कारण इन्हें बद्ध होते हुए भी अबद्ध माना जाता है । समस्त आसक्तियों से रहित होने के कारण इन्हें, स्पृष्ट होते हुए भी अस्पृष्ट कहा जाता है । केवलज्ञान रूपी अग्नि में समस्त इच्छा - संकल्प आदि दग्ध हो जाते हैं; इसी कारण ये समस्त क्रियाएँ, दग्ध बीज के समान निर्बीज भाव को प्राप्त हो जाती हैं अर्थात् पुनः फलोन्मुख होने की शक्ति उनमें नहीं रहती । 84 यही कारण है कि ईयापथ कर्म होते हुए भी संयोगकेवली परमात्मा कहे जाते हैं। जैन मतानुसार ऐसे जीवनमुक्त योगियों में केवल चार प्राण होते हैं वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास । पाँच इन्द्रियाँ और मनोबल नहीं होता। इस गुणस्थान में समुद्घात के अन्तिम समय में योगनिरोध के . कारण, वचन बल और श्वासोच्छवास का भी अभाव हो जाता है, केवल दो प्राण ही शेष रह जाते हैं | 35 अन्य दर्शनों में जीवनमुक्ति (1) उपनिषदों में जीवनमुक्ति वृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि शरीर का और ब्रह्मज्ञान का निषेध नहीं है, शरीर में रहते हुए भी उसे जाना जा सकता है । " मुण्डकोपनिषद् में भी कहा गया है कि जो ब्रह्म को जान लेता है, वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है, वह शोक से तर जाता है, पाप को पार कर लेता है और हृदय ग्रन्थियों से विमुख होकर अमरत्व प्राप्त कर लेता है। 7 (2) गीता दर्शन में जीवनमुक्ति - गीता में जीवनमुक्त के लिए स्थितप्रज्ञ शब्द का प्रयोग किया गया है; जो आत्मा में, आत्मा से सन्तुष्ट, दुःखों में अनुद्विग्न सुखों से निस्पृह और राग, द्वेष, भय, क्रोध आदि से दूर होता है । (3) बौद्धदर्शन में जीवनमुक्ति - बौद्ध दर्शन में जीवन मुक्ति के लिए 'उपाधिशेष निर्वाण' शब्द का प्रयोग हुआ है। इस अवस्था में राग, द्वेष, -
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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