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________________ कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना श्रवन ते जिन वचन सुनि, शुभ तप तपै सो देह ।। रे जिय ।। सफल तर इह भाँति है है, और भाँति न केह | द्वै सुखी मन राम ध्यावो, कहैं सद्गुरु येह ।। रे जिय ।। 18 द्यानतरायजी ने शरीर को अशुचि बताकर परमात्मा को श्रेयस्कर बताया है. — देह | नेह || घट ।। घट में परमातम ध्याइवे हो, परम धरम धन हेत । ममता बुद्धि निवारिये हो, टारिये भरम निकेत || घट । । प्रथमहि अशुचि निहारिये हो, सात धातुमय काल अनन्त साह्रै दुख जानै, तक्कौ तजो अब ज्ञानावरणादिक जमरूपी, जिनतैं भिन्न रागादिक परनति लख न्यारी, न्यारो सुबुध तहाँ शुद्ध आतम निर विकल्प है, करि तिसको ध्यान ।। अलप काल में घाति नसत हैं, उपजत केवलज्ञान || घट ।। चार अघाति नाशि शिव पहुँचे, विलसत सुख जु अनन्त । सम्यक् दरशन की यह महिमा, 'द्यानत' लह भव अन्त । । घट ।। निहार । विचार । 20 148 तप का महत्त्व बताते हुए वे समाधि धारण करने की प्रेरणा देते हैं ऐसो सुमरन कर मोरे भाई, पवन थमै मन कितहुँ न जाई ।। टेक ।। परमेसुर सो साँच रही जे लोक रंजना भय तप दीजै ।। ऐसो ।। जप अरु नेम दोउ विधि धारै, आसन प्राणायाम संमापे । प्रत्याहार धारना कीजै, ध्यान समाधि महारस पीजै ।। ऐसो. ।। सो तप तपो बहुरि नहि तपना, जो जप जपो बहुरि नहिं जपना | सो व्रतधरो बहुरि नहिं धरना, ऐसो मरो बहुरि नहिं मरना । । ऐसो ।। पंच परावर्तन लखि लीजै, पाँचों इन्द्री की न पतीजै । द्यानत पाँचों लच्छि लहीजै, पंच परम गुरु शरन गहीजै ।। ऐसो । । 21 - इस प्रकार द्यानतरायजी ने अपने काव्य में अन्तरंग एवं बाह्यशुद्धि का वर्णन किया है। (5) दशधर्म का वर्णन - आत्मा क्रोधादि कषायरूप परिणमित न हो और अपने स्वभाव में स्थिर रहे, यही उत्तम क्षमादिरूप धर्म है । इस प्रकार उत्तमक्षमादिरूप धर्म कहने से भी शुद्धचेतना के परिणामरूप धर्म ही सिद्ध
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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