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________________ कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 133 दिगम्बर द्रव्यलिंग होता है। अन्तरदशा को जाने बिना अकेले. बाह्य के द्रव्यलिंग से ही जो अपने को मुनित्व मानता है, वह तो संसारतत्त्व ही है। मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यलिंगी हो जाये, तथापि उसने संसार किंचित् भी नहीं छोड़ा है, क्योंकि वह उदयभाव में ही अवस्थित है, इसलिए संसार में ही पड़ा है और सम्यक्त्वी धर्मात्मा गृहस्थपने में हो, तथापि उसे सम्यग्दर्शनादिरूप जो उपशम, क्षयोपशम या क्षायिकभाव प्रगट हुआ है, उसके उतना संसार छूट गया है। मिथ्यात्वादि छूटने पर अनन्त संसारं तो उसके छूट गया है, इसलिए मिथ्यादृष्टि मुनि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को श्रेष्ठ कहा है। मिथ्यादृष्टि मुनि तो संसारमार्गी है और सम्यग्दृष्टि गृहस्थ मोक्षमार्गी है। यहाँ तो सच्चे भावलिंगी मुनियों (सद्गुरुओं) की बात है। जहाँ अन्तरंग दशापूर्वक बाह्य दिगम्बर दशा न हो, वहाँ मुनित्व नहीं होता। अट्ठाईस मूलगुणों का अखण्ड पालन - मुनि अट्ठाईस मूलगुणों का अखण्ड पालन करते हैं। पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियनिरोध, छह आवश्यक, केशलोंच, स्नानरहितता, TH EATRITI SANILAM नग्नता, अदन्त-धोवन, भूमिशयन, स्थिति-भोजन और एक बार आहार ग्रहण- इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुणों में मुनि विपरीतता नहीं आने देते। बाईस परीषहों का पालन - ___मुनि बाईस परीषह सहन करते हैं। मार्ग से अच्युतपने के लिए तथा निर्जरा के हेतु परीषह सहन करना कहा है अर्थात् जिसके अन्तर में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मार्ग प्रगट हुआ हो, उसके उस मार्ग से अच्युतिरूप परीषहजय होता है, किन्तु जिसके अभी मार्ग ही प्रगट नहीं हुआ - ऐसे मिथ्यादृष्टि के परीषह नहीं होता। परीषह कहीं दुःख नहीं है। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि के दुःख सहन करने को अज्ञानी लोक परीषहजय कहते हैं, किन्तु वह बात सत्य नहीं है। जिसमें दुःख मालूम हो या अन्तरंग में राग-द्वेष हो, वही परीषह नहीं है। राग-द्वेष की उत्पत्ति होने पर उसे जीतना ही परीषहजय है-ऐसा कोई कहे तो वह भी सत्य नहीं है। (क्योंकि जब राग-द्वेष की उत्पत्ति हो ही गयी तो उसे जीतना कैसे सम्भव है।) इस प्रकार अन्तर में जो शुद्धोपयोगी वीतरागी चारित्र है, वही मुनित्व है, ऊपर अन्तरंग और बहिरंग स्वरूप सद्गुरुओं का स्वरूप प्रतिपादित
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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