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________________ कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 119 देव धरम गुरु रतन अमोलक कर अन्तर सरधाना रे।। द्यानत ब्रह्म ज्ञान अनुभौ करि, जो चाहै कल्याना रे।। भाई।। 103 जिनेन्द्र का नाम स्मरण नहीं करने व विषय कषायों में लगे रहने पर संसारी जीव को फटकार लगाते हुए द्यानतराय कहते हैं - राग सोरठा जिन नाम समुरि मन बावरे, कहा दूत उत भटके। विषय प्रगट विष बेल है इनमें मत अटके। दुरलभ नरभव पाय के नगसो मत भटकै । फिर पीछे पछताएगा, अवसर जब सटकै ।। निज ।। • एक घड़ी है सफल जौ प्रभु गुण रस गटके। कोटि वरष जीवो वृथा जो थोथा फटकै ।। निज ।। द्यानत उत्तम भजन है कीजै मन रटकै । भव-भव के पातक सबै जैहे तो कटके।। निज । |104 इस प्रकार द्यानतरायजी ने अपने आध्यात्मिक पदों के द्वारा संसारी प्राणियों को मनुष्य भव की महत्ता बताकर येन-केन प्रकारेण अपनी आत्मा को जानकर राग-द्वेष-मोह भावों का अभाव पर नर से नारायण बनने का मार्ग बताया है। 6. द्यानतराय के राग-द्वेष-मोह तथा कषाय की बाधकता पर विचार - तीनों लोक के जीव राग-द्वेष-मोह भावों के कारण ही विभाव भावरूप परिणमन कर दुःखी रहते हैं। राग-द्वेष-मोह भाव जीव के शुद्धस्वरूप के निकट नहीं आने देते। ये राग-द्वेष-मोह परिणाम भाव दुःखदायी हैं, दुःखस्वरूप हैं। जैसा कि कहा है कि - आत्मा को राग-द्वेष और मदादि जो कुछ विकार हैं, विभाव परिणमन हैं, वे सब मेघजन्य सूर्य के विकारों की तरह कर्मजनित हैं ।105 · द्यानतराय ने भी राग-द्वेष-मोह भावों पर अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये हैं - राग-विहागडी जानत क्यों नहिं रे, हे नर आतम ज्ञानी। राग द्वेष पुद्गल की संगति, निहचै शुद्ध निशानी।। जानत।। जाय नरक पशु नर सुर गति में, ये परजाय विरानी।। । सिद्ध स्वरूप सदा अविनाशी, जानत विरला प्रानी।। जानत।।
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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