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________________ अस्यानुमानप्रयोग चेत्थम् - प्रमाणं ज्ञानमेवेति प्रतिज्ञा, हिताहित प्राप्ति परिहारसमर्थत्वादिति हेतुः, हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि ज्ञानं, नान्यत्, यथा घटादयः इत्युदाहरणम् / तथा चेदमित्युपनयः तस्मात्तथेति निगमनम्। ___ टीकार्थ : इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध सन्निकर्ष है और वह सन्निकर्ष अचेतन होता है और अचेतन से सुख की प्राप्ति अथवा दुःख का विनाश नहीं होता है। इसलिए सन्निकर्ष प्रमाण नहीं हो सकता। परंतु ज्ञान से सुख की प्राप्ति और दुःख का विनाश होता है। इसलिए ज्ञान ही प्रमाण है, जो सुख की प्राप्ति होने में और दुःख के विनाश करने में समर्थ है। उस ज्ञान को ही प्रमाण कहते हैं। सूत्रोक्त कथन का अनुमान प्रयोग इस प्रकार है - प्रमाण ज्ञान ही है। (प्रतिज्ञा) क्योंकि वह हित की प्राप्ति और अहित के परिहार करने में समर्थ है। (तु) जो वस्तु ज्ञानरूप नहीं है, वह हित की प्राप्ति और अहित के परिहार में भी समर्थ नहीं है जैसे - घटादिक (उदाहरण) हित की प्राप्ति और अहित के परिहार में समर्थ विवादापन्न प्रमाण है। (उपनय) अतः वह ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है। (निगमन)। 31. हित किसे कहते हैं ? सुख और सुख के कारण को हित कहते हैं। 32. अहित किसे कहते हैं ? दुःख और दुःख के कारण को अहित कहते हैं। 33. सूत्र में हि किस अर्थ में है ? तु अर्थ में (यस्मात्)। 34. सन्निकर्ष किसे कहते हैं ? इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध सन्निकर्ष कहलाता है। 35. सन्निकर्ष को प्रमाण कौन मानता है ? / नैयायिक मत वाले सन्निकर्ष को प्रमाण मानते हैं - प्रत्यक्ष तो निर्विकल्प है, अतः व्यवसायात्मक नहीं ऐसा कहने वाले बौद्धों को लक्ष्य में रखकर यह तृतीय सूत्र कहते हैं। 22
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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