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________________ बीसवाँ बोल ७९. धर्म की रुचिवाले जीव को त्रिकाली स्वरूप की श्रद्धा करना चाहिये। ___ अतः जिसे संसार का नाश करना हो, उसे अखंड ज्ञायक-स्वभाव की श्रद्धा करनी चाहिये। जिस स्वभाव में विकार का अभाव है, जिस स्वभाव में गुणभेद नहीं है, उसीप्रकार जो स्वभाव निर्मल ज्ञानपर्याय जितना नहीं है; परन्तु त्रिकाली एकरूप है, जो नित्यानंद ध्रुववस्तु है, उसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन और धर्म होता है। त्रिकाली स्वभाव को लक्ष में लिये बिना, जो जीव मात्र क्रियाकांड में धर्म मानता है, उसे कदापि धर्म नहीं होता। १. जिनमन्दिर आदि जड़पदार्थ हैं, उन्हें आत्मा नहीं कर सकता है तो भी आत्मा उनकी क्रिया कर सकता है; इसप्रकार मानना मिथ्यात्व है। २. तथा जिनमन्दिर के कारण राग हुआ अथवा राग हुआ; इसलिये जिनमन्दिर बना, ऐसा मानना मिथ्यात्व उत्पन्न करता है। ३. जिनमन्दिर का शुभराग हुआ; अत: जीव को धर्म होगा, इसप्रकार माननेवाला मिथ्यात्व उत्पन्न करता है। ४. पर्याय पर दृष्टि रखे; परन्तु अखंडद्रव्य को ध्यान में नहीं ले तो भी मिथ्यात्व होता है। त्रिकाली शुद्धस्वभावसामान्य में निर्मल ज्ञानपर्याय विशेष का अभाव है। ___ अत: जीवों को जैसा आत्मा है, वैसा जानना चाहिये। इस बोल में निर्मल पर्याय से भी नहीं स्पर्शित ऐसा शुद्धद्रव्य कहना है अर्थात् त्रिकाली द्रव्य में वर्तमान ज्ञानपर्याय का भी अभाव है; परन्तु वह अभाव कब कहलाता है? प्रथम, दो अंश हैं, ऐसा बतलाने के पश्चात् अभाव कहते हैं । यहाँ शुद्ध पर्याय भविष्य में प्रगट करनी है, ऐसा नहीं लेना है; क्योंकि जो वर्तमान में न हो, उसके साथ अभाव वर्तता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। परन्तु त्रिकाली द्रव्य जिससमय है, उसीसमय शुद्ध ज्ञान पर्याय है, भूत-भविष्य में नहीं है। इसप्रकार व्यवहार से पर्याय सिद्ध की है।' है ' उसका ज्ञान कराया है, तत्पश्चात् कहा है कि शुद्ध ज्ञानपर्याय तो वर्तमान जितनी (मात्र) है और उस वर्तमानपर्याय का त्रिकालीस्वभाव में अभाव है।
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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