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________________ ७८ अलिंगग्रहण प्रवचन २. त्रिकाली स्वभाव यदि दया-दानादि का आश्रय करे तो आत्मा विकारी हो जाये और इसलिये धर्म होने का प्रसंग नहीं बने। ३. त्रिकाली स्वभाव को यदि निर्मलपर्याय जितना माने तो भी धर्म नहीं होता है। (१) शुद्धस्वभाव त्रिकाली है और पर्याय एकसमय की है। (२) शुद्धस्वभाव अंशी है और पर्याय वह अंश है। . (३) शुद्धस्वभाव सामान्य है और पर्याय वह विशेष है। निश्चय से अंशी स्वभाव, अंश को स्पर्श करे तो अंशी और अंश पृथक नहीं रहते हैं, जो कि वस्तुस्वरूप के विपरीत है। अतः आत्मा ज्ञानपर्याय से नहीं आलिंगित ऐसा शुद्धद्रव्य है। अपने स्वभाव का अखंडपना भूलकर अज्ञानी जीव पर में अखंडपने की कल्पना करता है। - जिसप्रकार लौकिक में किसी के पास पाँच करोड़ रुपये की पूँजी हो तो उसके पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू सब ऐसा मानते हैं कि हम पाँच करोड़ के स्वामी हैं। घर में २५ व्यक्ति हों उनमें एक व्यक्ति को पचीसवाँ भाग पूँजी मिलेगी, तो भी वह कहता है कि हम पाँच करोड़ के स्वामी हैं । वहाँ खण्ड भेद नहीं करता है; क्योंकि वहाँ रुचि है; उसीप्रकार अंतरस्वभाव सम्पूर्णद्रव्य को लक्ष में लेवे ऐसा है; वह खण्ड-खण्ड दशा को अथवा अधूरी दशा को लक्ष में लेवे ऐसा नहीं है । स्वयं अखण्ड वस्तु है, वह परपदार्थ से रहित, विकार से रहित, गुणभेद से रहित और निर्मलपर्याय के भेद से रहित है। जिसे उसका भान नहीं है, वह बाहर के संयोगों में जो किसी काल में अपने साथ नहीं रहते, उनमें अखंडपने की कल्पना करता है। वे संयोग किसी काल में उसके नहीं हो सकते और अखण्डपने तो उसके साथ रहनेवाले ही नहीं हैं, तो भी अज्ञानी उनमें अखण्डपना मानकर सुख मिलने की आशा करता है, वह उसका मोह है और वह संसार का कारण है।
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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