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________________ ७४ अलिंगग्रहण प्रवचन ___४. वेदन-जानना तो पर्याय में ही है । अप्रगट शक्तिरूप त्रिकाली सामान्य को कोई वेदन, क्रिया अथवा जानना नहीं है - ऐसा पर्याय सत् में आत्मा जानता हुआ, तब उस शुद्ध पर्याय को आत्मा कहा। जो शुद्धपर्याय का अनुभव करता है, वह आत्मा है; जो राग का अनुभव करता है वह आत्मा नहीं है। निमित्त, विकल्प और भेद पर से दृष्टि छूटकर, चिदानंदस्वभाव की दृष्टि हुई, वह संवर-निर्जरा की अनुभूतिरूप शुद्धपर्याय हुई, वही आत्मा है – ऐसा स्वज्ञेय को जान। इसप्रकार स्याद्वादसहित स्वज्ञेय को यथार्थ जानना वह धर्म का कारण है। आठवाँ प्रवचन माघ कृष्णा ९, शुक्रवार, दि. ३०/२/१९५१ (आज १८-१९-२० वें बोल पर पुनः खुलासा कर रहे हैं।) बोल १८ : आत्मा गुणभेद से नहीं स्पर्शित ऐसा शुद्धद्रव्य है – ऐसा स्वज्ञेय को तू जान। ___ यह आत्मा कैसा है कि जिसके जानने से धर्म हो ? धर्म का करनेवाला आत्मा है। धर्म के करने में शांति है अथवा बाहर से आती है ? कर्ता कहो कि धर्मरूप परिणत कहो – एक ही बात है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पर्याय वह धर्म है । आत्मा को जानने से अविकारी परिणाम होता है अर्थात् धर्म होता है। हे शिष्य ! तू आत्मा को अलिंगग्रहण जान। वह किसी चिह्न द्वारा पहिचानने योग्य नहीं है। जो बीस प्रकार से कहा है, ऐसा आत्मा को जाने तो उसके लक्ष से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पर्याय प्रगट होगी। पाँच लाख रुपया किसप्रकार कमाया जाये? उसकी रीति (विधि) किसी को बतलाई जाये तो वह कितनी रुचि से सुनता है। वह रुपया तो जड़ है, उसे इष्ट मानकर ममता करता है। जिसप्रकार वह ममता पैसे में नहीं है; उसीप्रकार आत्मा में भी नहीं है। अज्ञानी जीव नवीन-नवीन ममता उत्पन्न
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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