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________________ बीसवाँ बोल ७३ होती है, ऐसा माना जाय तो विशेष, जो कि निरपेक्ष तत्त्व है, उसकी स्वाधीनता नहीं रहती है, पराधीन हो जाता है और अनित्यसत् शुद्धपर्याय का, जो 'है' का अभाव हो जाता है; अतः शुद्धपर्याय 'है', वह ध्रुवसामान्य का स्पर्श नहीं करती है-चुम्बन नहीं करती है।स्वतन्त्र अनुभव की पर्याय सामान्यद्रव्य को स्पर्श नहीं करती है; क्योंकि पर्याय द्रव्य को निश्चय से स्पर्श करें तो दोनों एक हो जायें। प्रश्न : शुद्धपर्याय 'है', इसप्रकार कहकर पर्याय का आश्रय तो नहीं कराना है ? उत्तर : नहीं, पर्याय का आश्रय नहीं कराना है। निर्विकारी पर्याय जो विशेष है, वह सामान्य के आधार से नहीं है; इसप्रकार कहना है । निरपेक्षता सिद्ध करनी है। निर्विकारी ज्ञानपर्याय, सामान्य ज्ञानगुण को स्पर्श करती हो तो सामान्य और विशेष एक हो जायें, भिन्न नहीं रहें । निर्विकारी पर्याय में ध्रुवसामान्य का अभाव है। अतः आत्मा, द्रव्य से नहीं आलिंगित ऐसा शुद्ध पर्याय है। शुद्ध पर्याय अहेतुक है। ___एक ओर त्रिकाली सामान्यज्ञान गुण है, दूसरी ओर ज्ञान की निर्मल पर्याय है, दोनों एक ही समय में हैं, समयभेद नहीं है। एकसमय की पर्याय में त्रिकाली गुण का अभाव है। इसप्रकार शुद्धपर्याय अहेतुक है, अकारणीय है, उसे कोई कारण नहीं है। १. वीतरागी निमित्त मिलने के कारण शुद्धपर्याय प्रगट हुई, इसप्रकार कोई कहता है तो वह स्वतन्त्र नहीं रहती है, पराधीन हो जाती है। २. शुभराग व्यवहार है; अतः उसके कारण शुद्धपर्याय प्रगट हुई, ऐसा कोई कहे तो भी वह स्वतन्त्र नहीं रहती है, पराधीन हो जाती है। ३. 'त्रिकाली ज्ञानगुण सामान्य है; अतः सम्यग्ज्ञान की पर्याय प्रगट हुई', यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा होने पर शुद्धपर्याय 'है', इसप्रकार नहीं रहता है। शुद्धपर्याय स्वतंत्र, सत्, अहेतुक है, ऐसा यहाँ कहना है।
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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