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________________ दूसरा बोल (२) आत्मा, इन्द्रियों से ज्ञात हो, ऐसी कुछ जीवों की मान्यता है, वह भी इससे (दूसरे बोल से) गलत सिद्ध होती है; क्योंकि आत्मा अपने ज्ञानस्वभाव से ज्ञात होने योग्य है; परन्तु इंद्रियों से ज्ञात होने योग्य नहीं है। ज्ञानस्वभाव आत्मा का है, इन्द्रियों का नहीं है। शास्त्र तथा वाणी से धर्म नहीं होता। प्रश्न : भगवान की वाणी अथवा शास्त्र न सुने वह आत्मा को किसप्रकार जान सके; क्योंकि देशनालब्धि मिले बिना तो आत्मा का ज्ञान ही नहीं होता और धर्म प्राप्त नहीं होता है न ? उत्तर : भाई! वाणी और शास्त्र तो पर हैं, जड़ हैं, उनसे ज्ञान नहीं होता; उसीप्रकार कान भी जड़ हैं । इन्द्रियों से ज्ञान हो और आत्मा ज्ञात हो, ऐसा आत्मा का स्वभाव ही नहीं है। वाणी तथा इन्द्रिय रहित अपने अतीन्द्रिय स्वभाव से आत्मा ज्ञात होने योग्य है। तथा स्व का ज्ञान करने पर, पर ऐसे शास्त्र और वाणी उनका ज्ञान भी यथार्थ ध्यान में आता है कि पूर्वकाल में शास्त्र तथा वाणी की ओर लक्ष था। स्व-पर प्रकाशक स्वभाव विकसित होते ही पर का यथार्थ ज्ञान होता है। शास्त्र, शब्द, कान, आँख में आत्मा नहीं है तो फिर शास्त्र तथा वाणी द्वारा आत्मा कैसे ज्ञात हो? ज्ञात नहीं ही होगा। परन्तु आत्मा अपने ज्ञायकस्वभाव द्वारा ही ज्ञात हो, ऐसा है । यह बात लोगों ने सुनी ही नहीं है और उनके कानों में पड़ी भी नहीं है। अतः कठिन लगती है। वाणी से धर्म नहीं होता तो फिर वाणी सुनने की क्या आवश्यकता है ? प्रश्न : अभी आप ही कहते हो कि कान तथा वाणी से ज्ञान नहीं होता और कहते हो कि यह बात कानों में पहुँची ही नहीं है। तो फिर इस बात को कानों में पहुँचने और सुनने की क्या आवश्यकता है? आप तो ऐसा कहते हो कि कान तथा वाणी से तो आत्मा का ज्ञान नहीं होता है। उत्तर : 'कानों में नहीं पड़ी है', ऐसा जो कहा है, वह निमित्त से और संयोग से कहा है, ऐसी बात सुनने को मिली ही नहीं अर्थात् उस जीव की
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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