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________________ १२ अलिंगग्रहण प्रवचन देव-शास्त्र-गुरु पर हैं, उन्हें मानना यथार्थ कब कहा जाय ? देवशास्त्र-गुरु और इंद्रियाँ पर हैं, उनसे मैं नहीं जानता हूँ, परन्तु स्वयं को जानने में पर भी जानने में आ जाता है, इसप्रकार निर्णय करे तो उस जीव ने देवशास्त्र-गुरु को यथार्थ माना और जाना कहलाता है। इस प्रमाण से अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति होने से परावलंबन छूटकर स्वावलंबन उत्पन्न होता है और उसमें से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पर्याय . प्रगट होती है। दूसरा बोल न लिंगैरिन्द्रियैाहकतामापन्नस्य ग्रहणं यस्तेत्यतीन्द्रियज्ञानमयत्वस्य प्रतिपत्तिः। अर्थ :- ग्राह्य (ज्ञेय) जिसका लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय नहीं है,' इस अर्थ की प्राप्ति होती है। आत्मा, इन्द्रियों से ज्ञात होने योग्य नहीं है। ___ अब दूसरे बोल में आत्मा इन्द्रियों से ज्ञात होने योग्य नहीं है। ऐसा कहते हैं। आत्मा इन्द्रियों से स्व तथा पर को नहीं जानता है; परन्तु स्वयं से स्वपर दोनों को जानता है, ऐसा पहले बोल में कह आये हैं। अब इस दूसरे बोल में कहते हैं कि प्रमेय ऐसा आत्मा इन्द्रियों से ज्ञात हो, ऐसा नहीं है। ___ इस दूसरे बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है – अ-नहीं, लिंग मात्र इंद्रियों से, ग्रहण जानना, आत्मा मात्र इंद्रियों से ज्ञात होने योग्य नहीं है अर्थात् आत्मा अपने ज्ञानस्वभाव से ज्ञात होने योग्य है। ___ (१) आत्मा, ज्ञान में ज्ञात ही नहीं होता; इसप्रकार की कुछ जीवों की मान्यता है, वह मान्यता इस (दूसरे बोल से) गलत सिद्ध होती है; क्योंकि आत्मा में भी प्रमेयत्व गुण है और प्रमेयत्व गुण न माने तो गुणी अर्थात् आत्मा के नाश का प्रसंग आता है; अत: यह मान्यता गलत है । प्रमेयत्व गुण के कारण आत्मा ज्ञान में ज्ञात होता है, ऐसा यह प्रमेय पदार्थ हैं।
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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