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________________ 20 . . चैतन्य की चहल-पहल उन्मग्नता एवं निमग्नता में भी 'मैं एकरूप ध्रुव शुद्ध तत्त्व हूँ' ऐसी प्रतीति अक्षुण्ण रहती है। एक ओर त्रैकालिक ध्रुवस्वभाव है, एक ओर क्षणिक पर्यायों का वर्तमान है - दोनों में उपादेयता का श्रेय एक को ही मिल सकता है। ध्रुवस्वभाव के इस विश्वास के बल पर ही ध्रुवस्वभाव की सम्पूर्ण शुद्धता के आदर्श से क्षणिक विकारी पर्यायों का परिहार करने का सम्यक् पुरुषार्थ जागृत होता है। ध्रुवदृष्टि का यह नियम केवल आध्यात्मिक विकास का ही मूल हो ऐसा नहीं है, वरन् लौकिक उत्कर्ष तथा लोक जागरण भी इसी नियम का अनुशीलन करते हैं। भारत की स्वाधीनता इसका ज्वलंत प्रमाण है। सदियों से दासता की श्रृंखलाओं में जकड़े भारत ने जब यह अनुभव किया “मैं स्वतन्त्र हूँ और स्वतन्त्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है" तभी दासता की श्रृंखलाओं को तोड़ने के लिये उसका सुप्त पुरुषार्थ जागा। यदि दासता को ही स्वीकार करके जन्मसिद्ध स्वाधीनता विस्मृत कर दी गई होती और परतन्त्रता के बीच स्वाधीनता का विश्वास ही नहीं जागता तो स्वाधीनता कैसे हस्तगत होती ? अत: स्वाधीनता का विश्वास भारत की स्वाधीनता की उपलब्धि का प्रथम चरण था। स्वाधीनता के विश्वासपूर्वक द्वितीय चरण के रूप में स्वाधीनता संग्राम का सूत्रपात हुआ। इसी प्रकार सही विश्वास या सम्यग्दर्शन आध्यात्मिक स्वतन्त्रता का भी प्रथम चरण है। वैकारिक पराधीनता में भी सम्यग्दर्शन अपने निर्विकारी स्वरूप का जयघोष करता रहता है। फलस्वरूप पराधीनता के सर्वनाश के लिये द्वितीय चरण के रूप में सम्यक् चारित्र का उदय होता है।
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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