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________________ वस्तु के सामान्य-विशेषरूप... 117 किया कि यह पृष्ठ समयसार का है वहाँ इस प्रकार ज्ञान के निर्णय में पूर्ण और अंश दोनों आ गये। जिस प्रकार यह समयसार का पृष्ठ है' यह कहने पर यह भी निश्चय हो गया कि उसके आगे-पीछे के सभी पृष्ठ किसी अन्य ग्रन्थ के नहीं हैं, किन्तु समयसार के ही हैं; इस प्रकार सारा ग्रन्थ ध्यान में आ जाता है। सारे ग्रन्थ को ध्यान में लिये बिना यह निश्चय नहीं हो सकता कि 'यह पृष्ठ उस ग्रन्थ का है।' इसी प्रकार 'यह मतिज्ञान उस केवलज्ञान का अंश है' इस प्रकार केवलज्ञान लक्ष्य में आये बिना निश्चित नहीं हो सकता। __यदि कोई कहे कि ज्ञान के अप्रगट अन्य अंश तो अभी शेष हैं न? उसका समाधान यह है कि यहाँ सारे अवयवी-पूर्ण की बात है, दूसरे अंशों की बात नहीं है। यहाँ पर अंश के साथ अंशी का अभेद बताया है। पूर्ण ज्ञान लक्ष्य में न हो तो 'यह ज्ञान का अंश है' ऐसा कहाँ से निश्चय किया? वर्तमान अंश के साथ अंशी अभिन्न है, वर्तमान अंश में सारा अंशी अभेदरूप में लक्ष्य में आ गया है, इसलिए जीव यह प्रतीति करता है कि यह अंश, इस अंशी का है। ___ वर्तमान अंश और पूर्ण अंशी का अभेदभाव है। यहाँ पर दूसरे अंश के भेदभाव की बात नहीं ली गयी है। अंशी में सब अंश आ गये हैं। यहाँ पर मतिज्ञान और केवलज्ञान का अभेदभाव बताया है। मतिज्ञान अंश है और केवलज्ञान अंशी है। अंश-अंशी अभिन्न हैं; इसलिए यह समझना चाहिए कि मतिज्ञान में केवलज्ञान प्रत्यक्ष आ जाता है। स्वाधीनता की प्रतीति में केवलज्ञान आचार्य भगवान ने आत्मा का स्वाधीन पूर्ण स्वभाव बताया है। तू आत्मा है, तेरा ज्ञानस्वभाव है, उस ज्ञानस्वभाव की विशेष अवस्था
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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