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________________ अज्ञानी को व्यवहार का सूक्ष्म..... श्री प्रवचनसारजी में कहा है कि - 'जिसे ऐसा आगमज्ञान हो गया है कि जिसके द्वारा समस्त पदार्थों को हस्तकमलकवत् जानता है, और यह भी जानता है कि इसका जाननेवाला मैं हूँ, परन्तु मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, इस प्रकार अपने को परद्रव्य से भिन्न केवल चैतन्य - द्रव्यरूप अनुभव नहीं करता' अर्थात् स्व-पर को जानता हुआ भी अपने निश्चयस्वभाव की ओर नहीं झुकता, किन्तु व्यवहार की पकड़ मैं अटक जाता है, इसलिए वह कार्यकारी नहीं है; क्योंकि वह निश्चय का आश्रय नहीं लेता । अतीन्द्रिय आनन्द की मौज में मुनिराज मुनिराज तो भीतर अतीन्द्रिय आनन्द में मौज करते हैं; वे कर्मप्रक्रम अर्थात् शिष्यों को पढ़ाना, पाठशाला चलाना या लेख लिखना आदि किसी भी बाह्य कार्य का बोझ सिर पर नहीं रखते। भगवान के समवसरण में जाकर वाणी सुनने, धर्मोपदेश देने व्रतादि पालने या श्रुत-चिन्तन का विकल्प आता है, परन्तु दृष्टि के आश्रयभूत शुद्ध चैतन्य विज्ञानघन के रसास्वादन के समक्ष वह सब बोझरूप लगता है । अहा ! ऐसी अद्भुत बात है । (- वचनामृत प्रवचन, पृष्ठ ३५१ ) 105
SR No.007138
Book TitleVastu Vigyansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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