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________________ चिद्काय की आराधना/67 'ज्ञानामृत प्रवाह स्वरूपोऽहम्' पर द्रव्यन की प्रीति से, बढ़ता सदा प्रमाद। इनको त्यागो पथिक तुम, बहता ज्ञान प्रवाह।। जो पुरुष निश्चय से अशुद्धता को करने वाले सब परद्रव्यों को छोड़कर अपने निज द्रव्य में लीन होता है, वह नियम से अपराधों से रहित होकर बंध के नाश को प्राप्त होने से नित्य उदय रूप अपने स्वरूप की प्रकाश रूप ज्योति से निर्मल उछलता जो चैतन्यरूप अमृत उसका आस्वादन करता हुआ मुक्तावस्था को प्राप्त करता है। ___ मैं मुक्ति का पथिक क्रोधादि कषायों व विकथाओं में रुचि का त्याग कर निज चिद्काय में डुबकी लगाने का परम पुरुषार्थ करता हूँ। __ हे भव्य! तुम्हारी चिद्काय बिना मन-इन्द्रिय, प्रकाश, गुरु, शास्त्र आदि की सहायता के स्वयं से ही अनुभव में आती है। इसलिये परलक्ष्य छोड़कर तुम अपने उपयोग को अपनी चिकाय में जोड़ने रूप पुरुषार्थ से सकल कर्मो का क्षय कर मोक्ष की प्राप्ति करो। निज चिकाय का ध्यान करने वाला आसन्न भव्य जीव विचार करता है कि अहो मेरी चिद्काय! तू धन्य है, धन्य है, तू शाश्वत शुद्ध है, शुद्ध है। तेरी उपमा देने योग्य दूसरा कोई पदार्थ लोक में नहीं है। एकमात्र तू ही वीतरागता उत्पन्न करने के लिए आश्रयभूत है। अपने ही घट में तेरे से भेंट कर मैं पावन हो गया। तू सर्वोत्कृष्ट है। तेरे को पा लेने से अब कर्म शत्रु मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकते। तेरी सेवा करने से मैं धन्य हो गया। तेरी सेवा करना ही मेरे योग्य कार्य है। तेरे सन्मुख होते ही मुझे अपार शांति का अनुभव होने लगा। हे मुक्त स्वरूप मेरी चिद्काय! तेरा साक्षात्कार होते ही विश्व के अन्य पदार्थों में सुखबुद्धि का मेरा मिथ्या अंधकार मिट गया है। हे चिद्काय! तेरी अनुपम मूर्ति को देखते ही मुझे शांति होने लगी। तेरी अनुपम मूर्ति अमूर्तिक सुख स्वरूप है। इसलिये तेरी सेवा ही मेरे लिए सुख का कारण है।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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