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________________ 66/चिद्काय की आराधना 'ज्ञानज्योति स्वरूपोऽहम्' मैं चैतन्य ज्ञानज्योतिमय, केवलज्ञान प्रकटाऊँगा। लोकालोक चराचर देखू, परम पुरुषार्थ जगाऊँगा।। तीन लोक का शिरोमणि बन, ऐसा ध्यान लगाऊँगा। घाति-अघाति सब क्षय करके, मुक्तिपुरी को जाऊँगा।। .. हे भव्य! तुम्हारा आत्मा केवलज्ञान ज्योति स्वभाव वाला है, पर कर्मों से आच्छादित है। मोहोदय से मति आदि क्षायोपशमिक ज्ञानों से क्रम-क्रम से परद्रव्यों को प्रकाशित करना मेरा स्वभाव नहीं है। ___ हे भव्य! आत्मा को ज्ञानावरणादि कमों से मुक्त करने के लिए परम पुरुषार्थ की आवश्यकता है। पुरुषार्थी जीव आँखें बन्द करके अपने उपयोग को अपनी चिद्काय में लगाकर कर्मों के बन्धन को काटता है और ज्ञानज्योति को, कार्य परमात्मा को प्रमट करता है। अब मैं सम्यग्ज्ञानी हुआ प्रत्यक्ष ज्ञानज्योति केवलज्ञान को अपने आत्मा में साक्षात् प्रकट करने का पुरुषार्थ करता हूँ। समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाली केवलज्ञान ज्योति मेरा स्वरूप है। निश्चय से मैं तद्प हूँ। यह जीव मोहरूपी मदिरा को पीने से भ्रांति रस ममकार-अहंकार के वेग से पुण्य-पाप रूप कर्मों के भेद रूपी उन्माद से मनुष्य-तिर्यंच गति आदि योनियों में नाचता है। ध्यान के बल से, उपयोग को निज दिव्यकाय में जोड़ने से प्रकृति प्रदेशादि चार रूप समस्त कर्मों को जड़मूल से उखाड़ कर अत्यन्त सामर्थ्यशाली अखंड केवलज्ञान ज्योति प्रगट होती है। वह ज्ञानज्योति ही मेरा स्वरूप है। मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान मेरा स्वरूप नहीं है। हे भव्य! ऐसा चिन्तवन करो_ 'मतिज्ञान रहित स्वरूपोऽहम्, श्रुतज्ञान रहित स्वरूपोऽहम्, अवधिज्ञान रहित स्वरूपोऽहम्, मनपर्ययःज्ञान रहित स्वरूपोऽहम्। सकलविमल केवलज्ञानस्वरूपोऽहम् ।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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