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________________ 24/चिकाय की आराधना सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवली पण्णतं धम्मं सरणं पव्वज्जामि, ये सब विकल्प हैं, शुभराग है, इनसे पुण्य बंध होगा, कर्म नहीं करेंगे। - अरहंत इत्यादि परद्रव्य होने से इस आत्मा को परमार्थ से शरणभूत नहीं हैं। त्रिकाल एक शुद्ध परमानन्द का पिण्ड निज चिकाय ही सदा शरणभूत है। वह बाह्य देह में सर्वत्र विराजमान है, अंतर्दृष्टि कर वहीं पर उपयोग लगाने से सुख की प्राप्ति होती है। इसलिये शरणभूत निज शुद्धात्म द्रव्य, अपनी ही चैतन्य काया का अनुभव करने का प्रतिदिन अभ्यास करो। उपयोग को अपने शरीर से बाहर मत भटकने दो । उपयोग चैतन्य का है। देह प्रमाण ही मेरा क्षेत्र है, देश है, धन है, पद है। इसके अतिरिक्त मेरा कुछ भी नहीं है। हे प्रभु! अपनी चिकाया को एक समय के लिये भी नहीं भूल । इस कलिकाल में जब हम चारों ओर देखते हैं तो लगता है कि धर्म ने संन्यास ले लिया है, तप चला गया है, सत्य दूर हो गया है, वनस्पति थोड़े फल देने लगी है, मनुष्य छल-कपट से भर गये हैं, पुत्र पिता से द्वेष रखने लगे हैं, दुर्जन अपना प्रभुत्व दिखा रहे हैं, दाता दरिद्र हो गये हैं, फिर भी बाहर की दुनियां से दूर, बहुत दूर जाकर अन्दर की आत्म दुनिया को ही अन्तर मन से देखते हैं तो भगवान आत्मा तो जैसा का तैसा ही है। उसमें कुछ भी बदलाव नहीं हुआ है, वह तो एक रूप रहता है। इस कारण उसे अनुभव में लेकर इस कलिकाल में भी जन्म-मरण रहित होने का और निज सुखद दुनिया बसाने का कार्य किया जा सकता है। यह कार्य यदि इस जीवन में नहीं किया तो केवल पछतावा ही रह जायेगा । ऐसामनुष्य भव और सब तरह के साधन मिले हुए हैं। उसमें अपना हित करना चाहें तो कर सकते हैं। बाहर की यात्रा हमने बहुत की है। अब हम अपनी अन्तर यात्रा शुरू करें। बाहर की यात्रा बहिर्मोहदृष्टि है और अन्तर की यात्रा अन्तर निर्मोहदृष्टि है । अन्तर दृष्टि का नाम ही ध्यान है। इसलिये आँखें बन्द करके भगवान की मुद्रा
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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